31 March, 2008

magical moments

this is a gif image, but i dont know why it doesnt move in hte blog...anybody knows about this kind of stuff please help me out.
click on the image to see the magic :)

29 March, 2008

होली

मोरे किसना तूने मुझको कितनी मुश्किल में डाला रे
कौन सा रंग लगाऊँ तुझको...तू क्यों इतना काला रे
लाल रंग ना दीखे तुझपे...हरा रंग भी दीखे ना
कैसे खेलूं तुझसे होली... तू जो इतना काला रे

सुबह से सारी सखियाँ आयीं रंग लिए पिचकारी भी
जी भर खेली उनके संग मैं, भीगी पूरी साड़ी भी
पर जो तुझको रंगा नहीं तो क्या होली की बात
दही बड़ा ज्यों सब डाला पर भूल गई मसाला रे

प्रीत के रंग मैं डालूं तुझपे आ जाओ मेरे किसना
बतलाऊँ कि क्यों होता होली का रंग निराला रे
नीली पीली हरी गुलाबी सारे रंगो में रंग कर
एक दिन तो हो जाती मैं भी काली...तू जो काला रे

एक रंग ऐसा भी

नूपुर बोले धीमे सुर में
आया किसना री...
हाय! लजा कर लाल हुयी मैं
उसने जो पकड़ी चुनरी...
आज तो होली नहीं है
मनुहार कितनी की...
भाग निकली जैसे ही मैं
उसने मारी पिचकारी...
भीगी साड़ी जो मैं दौड़ी
रंग लेके भी...
छलिया किसना रंग डाला
मेरे रंग से ही...
गाल रक्तिम, मंद स्मित मैं
बनूँ किसलय सी...

26 March, 2008

कभी कभी यूँ ही
किसी कागज़ पे तुम्हारी handwriting दिख जाती है
अनायास ही...सामने आ जाती है पूरी जिंदगी
जो तुमने अपने हाथों से सँवारी थी

याद आती हैं वो थपकियाँ jab गर्मी की दोपहर मैं सोती नहीं थी
याद आते हैं वो किचन के लम्हे जब चटनी का स्वाद चखाती थी
याद आते हैं वो जन्मदिन जब तुम हाथ पकड़ के केक कटवाती थी
याद आता है वो तुम्हारा कौर कौर खिलाना सुबह सुबह

याद आते हैं वो सारे स्वेटर के फंदे वो तुमने मेरी जिद पे बनाये थे
याद आता है मेरी पेंटिंग्स टू तुम्हारा स्ट्रोक्स देना
मेरी कढाई के लिए फ्रेम कसना
मेरी साड़ी बांधना

मेरी जिंदगी तुम्हारे हाथो की संवारी हुयी है माँ
आज मुझे तुम्हारे हाथों की बहुत याद आती है

कोई नहीं रखता है सर पे हाथ तुम्हारी तरह
आज तुम्हारे हाथों की बहुत याद आती है माँ

याद

कितने कितने पुर्जो पर

तुम्हारे हाथों के चलने को

समेट कर रखा है मैंने

कुछ ख़त...कुछ ऐसे ही तुम्हारे ख्याल

और कितने डिज़ाईन फूलों के, बूटियों के

कुछ फिल्मो की टिकटों पर लिखे फ़ोन नम्बर

कुछ कौपी के आखिरी पन्नों पर

पेन की लिखावट देखने के लिए लिखा गया नाम

मैंने हर पन्ना सहेज कर रखा है माँ

और जब तुम बहुत याद आती हो

इन आड़ी तिरछी लकीरों को देख लेती हूँ

लगता है...तुमने सर पे हाथ रख दिया हो

12 March, 2008

ओ गंगा

समेट लो ना...
ओ गंगा! अपना किनारा
यूं ही अंजुरी में भर कर खेलती रहूंगी
संकल्पों का खेल मैं अनगिन दिनों तक
धारा उड़ेलती अंजुरी से
नादान सी ख्वाहिशें पालती रहूँगी
घरौंदे बनाती रहूंगी...और बिलखती रहूंगी
ओ गंगा समेट लो अपना किनारा तुम...


कि बह जाएँ बचपन के सपने
तुम्हारी अठ्खेलियों में
कहते हैं मोक्ष मिलता है तुम्हारे पानियों में
कि शायद मेरे सपनो को भी राहत मिल जाए
ओ गंगा इसलिए समेट लो अपना किनारा तुम...

कि अब भी ढूँढती हूँ

रेत पर मैं खुशियों के निशां

मैं अब भी कागजों कि कश्तियाँ देती हूँ बच्चों को

औरअब भी उनके डूब जाने पर उदास होती हूँ

ओ गंगा समेट लो अपना किनारा तुम...

कि जब भी डूबता है सूरज

और लाल हो जाता है पश्चिमी किनारा

यूं लगता है किसी ने फ़िर से कोई लाश बहा दी है

किसी ने फ़िर कोई जुर्म किया है...चुपके से

ओ गंगा समेट लो अपना किनारा तुम...

या कि एक बार आओ...साथ बहते हैं

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