24 December, 2008

नव वर्ष मुबारक हो...मैं चली छुट्टी मनाने

सबको मेरी तरफ़ से merry christmas and a very happy new year

ऐसा है की हम छुट्टी पर जा रहे हैं। एक हफ्ता...लगभग। ७ जनवरी को वापस आयेंगे...तब तक नया साल आ चुका होगा।

तो ऐसे भी कह सकते हैं कि अब एक साल बाद मिलेंगे। ३१ दिसम्बर के बारे में कुछ मजेदार लाइनें
  1. हम कहते थे कि आज नहा लो, नहीं तो साल भर बिना नहाये रहना पड़ेगा।
  2. आज झगड़ा किया है तो मना लेना जरूरी है, वरना वो साल भर रूठा रहेगा...और जाहिर है साल भर बहुत लंबा अरसा होता है। तो हम अपने झगड़े आज सुलझा लेते थे। अगर मेरी किसी बात से कहीं किसी को कोई दुःख हुआ है तो इसी साल मान जाइए...मैं please भी कह रही हूँ
  3. रात को पढ़ाई नहीं करते थे, बड़ा मज़ा आता था, जैसे कि साल भर वाकई पढ़ाई से छुट्टी हो।

बाकी अभी कुछ याद नहीं आ रहा, फ़िर कभी लिखूंगी।

वैसे आज मेरे बारे में राजस्थान पत्रिका में एक article आई थी। सोचा आपको भी लिंक दे दूँ।

आप उसे यहाँ पढ़ सकते हैं। आशीष जी को हार्दिक धन्यवाद.

23 December, 2008

एहतेशाम...ईद...और वो चाँद

आज बस एक खूबसूरत शाम का जिक्र...

हमें IIMC छोड़े लगभग एक साल हो गया था, नई नई जॉब में सब बिजी थे...हफ्ते में एक भी दिन छुट्टी नहीं मिलती थी। ऐसे में दोस्त हैं, जेएनयू है या गंगा ढाबा नाम की किसी जगह को हम भूल चुके थे। और ये लगभग सबकी कहानी थी, मैं भी कभी कभी अगर PSR जा भी पाती थी तो अकेले डूबते सूरज को देख कर चली आती थी।

ऐसे में ईद आई और साथ में एहतेशाम का न्योता की तुम्हें आना है, और सबसे पहले आना है और सबसे देर से जाना है। वो मेरा बहुत प्यारा दोस्त है , न बोलने का कोई सवाल ही नहीं उठता था। उस दिन ऑफिस में बड़ी मिन्नत कर के मैं ७ बजे भागी थी वहां से। एहतेशाम के घर पहुँची तो एकदम कॉलेज के दिन याद आ गए, सारे लोग वहां थे, एक एक दोस्त।

वो ईद मेरी जिंदगी की सबसे खूबसूरत ईद थी, गई तो देखा एहतेशाम और राजेश ने मिल के बहुत ही बढ़िया सेवैयाँ बनाई थी, और साथ में कबाब और पनीर टिक्का। साथ में शायद रूह अफजा था, मुझे याद नहीं...याद है की कितने प्यार से जिद कर कर के हमने सब को खिलाया था। उस दिन मुझे एक प्रोजेक्ट पर भी काम करना था, पर शुक्र था की मेरा बॉस भी ईद मनाने गया हुआ था, उसने कॉल किया की पूजा काम की हो...मैंने डरते डरते कहा की मैं ईद मना रही हूँ, काम कैसे करुँगी। और उस दिन हमारे बिग बॉस यानि सीईओ का फ़ोन आने आला था मुझे, काम की प्रोग्रेस देखने के लिए मैंने पूछा की सर कॉल करेंगे तो क्या कहूँगी...और मुझे यकीं नहीं हुआ, उसने कहा की फ़ोन काट देना, पिक मत करना। और मैंने ऐसा ही किया।

देर रात तक किस्से चलते रहे, सबने अपने अपने ऑफिस की कहानी सुनाई जो की कमोबेश एक ही जैसी थी, फ्रेशेर होना शायद एक जैसा ही होता है। धीरे धीरे सब आपने अपने खेमे में बढ़ने लगे, पर मैंने वादा किया था की सबसे आख़िर में जाउंगी...तो निभाया।

मुझे आज भी ईद पर वो रात याद आती है...सड़क पर चलते हुए चाँद देखना। उस दिन एहतेशाम बहुत अच्छा लग रहा था, उसे कुरते में पहली बार देखा था। उस दिन जिंदगी थोडी अपनी सी लगी थी... लौटते हुए जान रही थी की शायद ऐसी ईद अब कभी नसीब नहीं होगी...पर फ़िर भी दिल ने यही दुआ मांगी चाँद को देख कर। खुदा ये दोस्ती सलामत रखना...ये ईद सलामत रखना। कहीं और नहीं तो मेरे दिल में वो रात आज भी जिन्दा है...साँसे लेती है, ख्वाब देखती है।

22 December, 2008

एक मुलाकात जिंदगी से...

"आई थिंक आई ऍम फालिंग...फालिंग इन...लव विथ यू", गुनगुना रही थी और बस हंस रही थी उसे देख कर...उसकी आँखें जैसे रूह तक झांक सकती थीं, ज्यादा देर तक उसे लगातार देख नहीं पा रही थी, जब कि ऐसा कुछ भी नहीं था जो छुपाना था उससे। या शायद छुपाना था...

उसने कहा कि मैं उससे पिछले एक महीने से बात कर रही हूँ, क्या वाको? मुझे यकीन नहीं हुआ, पता ही नहीं चला इतनी दिन हो गए। जैसे रूह पहचानती है उसको भले चेहरा याद नहीं, शायद हम मिलें हो पहले कभी, समय कि सीमाओं से परे....शायद अंतरिक्ष में साथ भटकें हों...अनगिनत सवाल, और इनके जवाब ढूँढने ki जरुरत नहीं लगती, जैसे कि हम दो लोग नहीं हैं, कुछ समझाने की जरुरत नहीं होती उसे.

कि मुझे सिगरेट से कोई दिक्कत थी, पर उसे नर्वस देख कर थोड़ा घबराने लगी थी मैं भी। पर फौजी ने जब उसे डांटना शुरू किया कि देखो सरे लोग तुम्हें सिगरेट पीने से मन करते हैं तो जाने क्यों मैं बिल्कुल उसके तरफ़ से झगड़ने लगी...मेरा बस चलता तो मैं ख़ुद उसे एक सिगरेट जला के दे देती. बड़े टेनसे से लम्हे थे वो, बड़ी मुश्किल से कटे. रेस्तौरांत से बहार आके बड़ा सुकून महसूस हुआ, मैं लगभग साँस रोके बैठी थी.

फौजी ने बाहर आके कुछ कहा नहीं पर उसकी मुस्कान बहुत सरे वाक्य कह गई, अब मैं चीख तो नहीं सकती न कि वो मेरा बॉयफ़्रेन्ड नहीं है...इन फैक्ट वो मेरा कुछ भी नहीं है। कार में बैठ कर भी टेंशन हो रही थी...मैंने सिगरेट के तीन चार काश लगाये. अच्छी लगी पर ये भी जान गई मैं कि जो लोग कहते हैं कि सिगरेट पीने से टेंशन कम होती है...फत्ते मरते हैं. उसने कहा मैंने उसकी सिगरेट गीली कर दी. बड़ा बेवकूफ की तरह महसूस किया मैंने ख़ुद को...जैसे सिगरेट पीने से बड़ी कला दुनिया में नहीं है.

उससे बहुत सी बातें करने का मन कर रहा था, या अगर सही कहूँ तो उसकी बहुत सारी बातें सुनने का मन कर रहा था। चाहती थी कि वो बोले और मैं चुप रहूँ, बस सुनूं कि वो क्या सोचता है, क्या चाहता है...कुछ भी. उसे अच्छी तरह जाने का मन कर रहा था, उतनी अच्छी तरह जैसे शायद वो मुझे जानता है. कैसे जानता है, मालूम नहीं

बालकोनी पे हलकी सी ठंढ बड़ी अच्छी लगी, कोहरे का झीना दुपट्टा गुडगाँव कि ऊँची इमारतों ने ओढा हुआ था, उसमें से कहीं कहीं गाँव की किसी अल्हड किशोरी की आँखों की तरह किसी की बालकनी में लाइट्स जल रही थी। मीठी मीठी ठंढ जब साँसों में उतर गई तो बालकोनी का मोह छोड़ना पड़ा.

उसे अपनी कवितायेँ पढ़ाई मैंने, अच्छा लगा। वो सारे वक्त आराम से नहीं बैठा था...एक हरारत दिख रही थी उसमें. मैं आधे वक्त बस हंसती रही थी, किसी तकल्लुफ के बगैर. कुछ कहना नहीं चाहती थी, बस देखना चाहती थी उन आंखों में क्योंकि पहली बार ऐसा हुआ था मैं किसी कि आँख से आँख मिला के बात नहीं कर पा रही थी, और मुझे बड़ा अजीब लग रहा था.

सिगरेट का धुआं मुझे अच्छा नहीं लगता...फ़िर आज क्यों लग रहा था। मुझे इतना तो पता था कि ये गंध मैं बस उससे जुड़े शख्स के कारण पसंद कर सकती हूँ. तो क्यों अच्छा लग रहा था अल्ट्रा माईल्ड का धुआं? उसके कारण? मेर दिल कर रहा था एक काश लेने का, मगर उस सिगरेट का जो वो पी रहा था, क्यों? पता नहीं. वैसे मेरा मन कभी नहीं करता कि मैं सुट्टा लागों, पर उस वक्त कर रहा था. मैंने मग भी पर उसने मना कर दिया. कि मैं फ़िर उसकी सिगरेट ख़राब कर दूंगी, थोड़ा दुःख हुआ. शायद आज तक जो चाहा लेने की आदत बन गई है, चाहे किसी कि उँगलियों में अटका अल्ट्रा माईल्ड क्यों न हो...

उसकी नज़रें बड़े गहरे कुछ तलाशती हैं, जैसे मेरा पूरा वजूद मेरी आंखों में दिख जायेगा। अहसास हुआ कि उससे कुछ भी छुपाना बड़ा नामुमकिन है और ख्वाहिश हुयी उसे वैसी ही नज़रों से देखूं...पर देख नहीं पायी.


डर लगा मुझे, कहीं उसने सुन तो नहीं लिया मेरी आंखों में, "आइ थिंक आई ऍम फालिंग फालिंग इन लव विथ यू।"




Janno Gibbs - Fall...

21 December, 2008

छुट्टियाँ

हमारे घर में शीशम के बहुत सारे पेड़ थे...गर्मियों में इनके कारण छाया मिलती थी और जाडों में लकड़ी। और घर में जब काम होता था तो लकड़ी की छीलन, जिसे हम कुन्नी कहते थे...बोरों में भर कर रख लेते थे। देवघर ऊँची जगह पर स्थित है तो वहां ठंढ भी थोडी ज्यादा पड़ती है। हर साल दिसम्बर आते ही कहीं से कोई पुराना धामा, या ताई (लोहे का बड़ी कटोरी जैसा पात्र जिसमें घर बनने वक्त सीमेंट या बालो उठाया जाता है) निकाल कर रख लेते थे। शाम होने के थोड़ा पहले बाहर आँगन के तरफ़ घूम घूम कर सूखी लकडियाँ चुन लेते थे, शीशम की डाली बहुत अच्छे से जलती थी।

गौरतलब है कि लगभग इसी समय आलू निकलने का भी वक्त होता है। हमारे यहाँ घर की बाकी जमीन, जिसे हम फिल्ड कहते थे में आलू की खेती होती थी। क्यारियों में आलू के पेड़ लगे होते हैं, मिट्टी हटा कर आराम से आलू निकाल लेते थे हम। लगभग सात बजे घर में अलाव जलता था, जिसे थोडी देर ताप कर मम्मी खाना बनाने चली जाती थी और हम दोनों भाई बहन पढने बैठ जाते थे, लैंप की रौशनी में। ९ बजे के लगभग पापा के आने का टाइम होता था और मम्मी अलाव सुलगा के रखती थी, पापा आते थे और खाना लग जाता था १० मिनट में। इतने देर में हमारा homework ख़त्म हो जाता था।

फ़िर पापा के sath खाना खाते थे, और पापा हर रोज हमें कहानी सुनते थे, हातिमताई की...हम बेसब्री के पापा के आने का इंतज़ार करते थे। और हर रोज़ सारी कहानी सुन लेने का मन करता था पर पापा रोज़ थोडी कहानी सुनाते थे, जैसे हर रात हातिमताई हुस्न्बनो के एक सवाल का जवाब dhoondhne कैसे गया और सवाल का जवाब क्या था। इस बीच हम अलाव में आलू घुसा देते थे, आलू पाक जाते थे और खाने में इतना सोन्हा स्वाद आता था कि क्या बताएं। हम झगड़ते रहते थे कि कौन सा आलू किसका है अक्सर बड़े wale आलू के लिए खूब झगडा होता था। और आप यकीं नहीं करेंगे कि हमने इसका क्या उपाय निकाला...कच्चे आलू पर ही हम अपने अपने नाम का पहला लैटर लिख देते थे, मेरा P और जिमी का J

ऐसे ही जाड़े कि छुट्टियाँ ख़त्म हो जाती थी, हम रोते पाँव पटकते स्कूल जाना शुरू कर देते थे।

19 December, 2008

दिल ढूंढता है...

घर
ये एक शब्द जाने कैसे
अजनबी, अछूता सा हो गया है
वो घर जहाँ शीशम के पेड़ थे
आसमान तक जाती झूले की पींगें थी
क्यारियों में लगी रजनीगंधा थी
कुएं में छप छप nahata चाँद था
पोखर में उछलते कूदते मेंढक थे
बारिशों में कागज़ की नाव थी
धूप में अमरुद का पेड़ था
छोटी सी चारदीवारी थी
जिसे सब फांद जाते थे
खूब सारे पीले फूलों से ढका पेड़ था
गुलमोहर के फलों की तलवारें थी
बालू के घरोंदे थे
गिट्टी के पहाड़ और किले
बुढ़िया कबड्डी थी
खाली खाली सड़क थी
हाफ पेडल साईकिल थी
११ सालों में बड़ा हुआ बचपन था
जो ६ सालों से खोया हुआ है...


जाने कैसी कैसी यादों ने आ घेरा, शब्द कबड्डी खेलने लगे, परेशान हो गई मैं। इस पोस्ट की पोटली में बाँध दिया, अब शायद इनकी शरारत थोडी कम हो।

आज से महेन के ब्लॉग चित्रपट पर भी लिख रही हूँ। फिल्मों को एक अलग नज़र से देखने का शौक़ वो भी रखते हैं उन्होंने अपने कारवां में साथ चलने का आमंत्रण दिया...और हम चल पड़े। अलग सी फिल्मों के बारे में बहुत अच्छी जानकारी है इस नवोदित ब्लॉग पर।

18 December, 2008

तुम

इक दुआ सी कैसी
कल शाम तेरी याद आई
कि जिंदगी फ़िर से...जिंदगी लगने लगी

एक लम्हे को छुआ जब
तेरे लबों की तपिश ने
बादलों में फ़िर से...आग सी लगने लगी

तनहाइयों के घर में
डाले थे कब से डेरा
तेरा नाम लिया जैसे...चहलकदमी होने लगी

टूटा हुआ था मन्दिर
रूठे थे देव सारे
जिस दिनसे तुझे माँगा...फ़िर बंदगी होने लगी

तुम सामने हो कब तक
यूँ होश सम्हालें हम
एक नज़र ही देखा...दीवानगी होने लगी

मर ही गए थे हम तो
यूँ तुमसे दूर रह कर
तुम आ गए हो फ़िर से...जिंदगी होने लगी

17 December, 2008

चवन्नी चैप और हम

अजय ब्रह्मात्मज एक वरिष्ठ लेखक हैं और हिन्दी फ़िल्म इंडस्ट्री पर मेरे जानकारी में सबसे विस्तृत जानकारी वाला ब्लॉग लिखते हैं। फिल्मों से जुड़े होने के कारण मैं भी अक्सर उनके ब्लॉग पर जाती रही और प्रेरणा पाती रही हूँ।

इसलिए आज जब उन्होंने अपने ब्लॉग के स्तम्भ हिन्दी टाकिज के लिए लिखने को कहा तो मैं बेहद खुश हुयी। ऐसी जगह कुछ भी लिखना, मेरे लिए तो गर्व की बात है, और अजय जी ने जो मान दिया है उसकी मैं बेहद आभारी हूँ। आप मेरे लिखे को यहाँ पढ़ सकते हैं।

हिन्दी टाकिज एक ऐसी श्रृंखला है जिसमें अजय जी के शब्दों में "इच्छा है कि इस सीरिज़ के अंतर्गत हम सिनेमा से निजी संबंधों को समझें और उन अनुभवों को बांटे ,जिनसे हमें सिने संस्कार मिला।चवन्नी का आग्रह होगा कि आप भी अपने अनुभव भेजें।इसे फिलहाल हिन्दी टाकीज नाम दिया जा रहा है।"

तो ये ख़बर मेरे पेट में पची नहीं...तो पोस्ट कर दिया ।

तुम्हारे बिना

आज भी याद है
वो चूडियों की खनक
जब सिल्ली पर
बादाम की चटनी पीसती थी
एक लय थी उसमें...खन खन खन सी

या जब रात को चुपके से
देखने आती थी की मैं पढ़ रही हूँ
या सो गई
दबे पाँव आने पर भी
पायल थोडी सी बोल ही देती थी...

सुबह जब तक
पॉँच बार आवाज न लगाये
उठने का सवाल ही नहीं उठता था
बिना डांट खाए
रोटी गले से नहीं उतरती थी...

याद है अब भी मुझको
शादी वगैरह में जाने पर
कैसे हुलस के गीत गाती थी तुम
सब तुम्हारे आने का इंतज़ार किया करते थे...

सरस्वती पूजा, दशहरा और दिवाली की आरती
तुमसे ही तो सुर मिलाना सीखा था
शंख की ध्वनि...और वो घंटियाँ

आज बैठती हूँ
अचानक से मेरी चूडियाँ बोल उठती हैं
लगता है सामने दरवाजे से तुम आ जाओगी
लेकिन...बिखर जाता है सन्नाटा
तुम्हारे बिना घर चुप हो गया माँ...

16 December, 2008

फिल्में और ज्ञान :)

कुछ दिन पहले पीडी से बात कर रही थी, उसने फिल्मों के बारे में कुछ और जानने की इच्छा जाहिर की। अब वैसे तो हम इस तरह का ज्ञान बांटने में पहले से ही दो कदम आगे रहते हैं...पर इस बार समस्या थोडी जटिल थी। फ़िल्म बनाना आसान है, ऐसे बहुत director हैं जिन्होंने बिना कहीं से कुछ पढ़े अच्छी फिल्में बनाई हैं। यहाँ पढ़े से मेरा मतलब था की कोई प्रोफेशनल कोर्स किए बगैर।

किसी भी दिशा में बढ़ने से पहले उसके बारे में जानकारी इकठ्ठा करना जरूरी होता है, इन्टरनेट आ जाने से काफ़ी आसानी हो गई है। मैंने अपने कॉलेज के समय में काफ़ी खाक छानी थी, अच्छी किताबें ढूंढ़ना अपने आपमें एक महान कार्य होता है :) और उसपर भी जब आप पटना जैसे शहर में रह रहे हों। साल भर पुस्तक मेला का इंतज़ार रहता था की कोई अच्छी किताब मिलेगी...और वाकई ये इंतज़ार बेकार नहीं होता था।

दिल्ली आने के बाद काफ़ी आसान हो गई चीज़ें, एक तो IIMC की विशाल लाइब्रेरी जिसमें फ़िल्म के हर पक्ष को लेकर कई किताबें थी, चाहे वो नई तकनीक हो या पुराने जुगाड़। इसके अलावा अगर कभी मन होता तो CP जा के किताबें ले आते...यहाँ बंगलोर आई तो पहली बार नेट पर ढूँढने की जरूरत महसूस की...तो पाया की हिन्दी फिल्मो का रेफेरेंस कहीं भी नहीं मिलता है। और बाकी फिल्में ढूंढ़ना काफ़ी मुश्किल भी होता है, अगर किस्मत अच्छी हुयी तब तो मिलेगी वरना बस...आसमान देख कर बारिश की उम्मीद करने वाला हाल।

आग में घी का काम किया एक और व्यक्ति ने, जिसका मुझे नाम भी नहीं पता है। हुआ ये कि मैंने फ़िल्म पर जो वर्कशॉप की थी, उसमें एक उदहारण Blair Witch Project नाम कि फ़िल्म का था...यह फ़िल्म मुझे बिल्कुल ही बकवास लगी थी, कारण किसी और दिन बताउंगी...तो बन्दे ने कह दिया कि ये बहुत अच्छी फ़िल्म थी और तुम्हें फिल्मो की पकड़ नहीं है वगैरह वगैरह...intellectuals के लिए बनाई गई थी फ़िल्म। अब ऐसे अपने मुंह मिया मिठू को तो खैर क्या कहना...पर इस बात बाटी में उसने एक बात और कह दी...कि हम हिन्दुस्तानियों को फिल्मो कि समझ नहीं है, और हमें फ़िल्म बनने नहीं आती। खास तौर से इशारा हिन्दी फिल्मों की और था...उन्होंने कुछ कुछ होता है को छोड़ कर कोई भी हिन्दी फ़िल्म नहीं देखी थी। अब ऐसे बेवकूफ लोगो को क्या कहूँ मैं...बिना ये देखे और जाने कि हमारे यहाँ कैसे फिल्में बनी है चल दिए अमेरिका का गुणगान करने।

तो मैंने सोचा कि फिल्मों पर एक श्रृंखला शुरू करुँगी...भाषा हिन्दी और इंग्लिश जो भी सही लगेगा टोपिक के हिसाब से...पर उसमें मैं कुछ उन फिल्मो का जिक्र करुँगी जो हमारे यहाँ बनी हैं, और उनके कुछ उन पहलुओं पर रौशनी डालूंगी जिससे हम सब रिलेट कर सकते हों।

अब चूँकि इस ब्लॉग पर इंग्लिश में नहीं लिखती हूँ, तो दूसरे ब्लॉग पर लिखूंगी...और सिर्फ़ इसी बारे में लिखूंगी। I dream ब्लॉग फिल्मों के बारे में मेरे सपनो को लेकर है। सोच रही हूँ लिखना शुरू करूँ, पर चूँकि अभी तक ऐसा कुछ मिला नहीं है पढने को , ये भी लगता है कि ऐसे मटेरिअल कि जरूरत है भी कि नहीं, मैं बिन मतलब के वक्त तो नहीं बरबाद करुँगी?

आपकी क्या राय है?

15 December, 2008

किस्सा ऐ शूटिंग

एक पूरा हफ्ता...और करने को कुछ नहीं
एडिटिंग शनिवार को होनी है।

इस बार फ़िल्म बाने के मैंने बहुत कुछ सीखा...और सबसे जरूरी था एक टीम की तरह काम करते हुए एक दूसरे पर भरोसा करना। जब किसी को कोई बात समझ नहीं आ रही तो उसकी मदद करना, उसे समझाना की वो काम को कैसे बेहतर कर सकती है...न की ख़ुद ही करने लग जाना की तुमसे नहीं हो पायेगा।

ये पहली बार हुआ है कि मैंने कैमरा फेस किया है...मुझे बहुत मज़ा आया मगर फ़िर भी हर शॉट में लगता था कि पता नहीं कोम्पोसिशन कैसी है, लाइट angles सही हैं या नहीं। काफ़ी टेंशन होती रही की फ़िल्म actually स्क्रीन पर लगेगी कैसी??!!!

रात को शूट करना बहुत मुश्किल होता है, इसलिए अधिकतर फिल्में दिन में शूट होती हैं और फिल्टर लगाये जाते हैं कैमरा पर। मुझे थोड़ा बहुत अंदाजा तो था कि दिक्कत होगी मगर इतनी होगी नहीं सोच पायी थी। हर शॉट के लिए लाइट को हटाना पड़ता था, कैमरा अलग जगह रखना पड़ता था, और इस सब के साथ ये भी ध्यान रखना पड़ता था कि ऐसा तो नहीं हो रहा कि परछाई दूसरी तरफ़ आ रही है।

सबसे मुश्किल तो ये था कि कैमरा में अच्छी इमेज आए इसके लिए लाइट कैमरा के पीछे और हमारी बिल्कुल आंखों पर पड़ रही थी...पर उसमें भी बिल्कुल आराम से dialog बोलना...हँसना गप्पें करना। एक अलग तरह का अनुभव था।

खैर शूटिंग ख़त्म हुयी...अब रिजल्ट का इंतज़ार है.

13 December, 2008

दिल्ली तेरी गलियों का...

तारीखें वही रहती हैं

साल दर साल

वही हम और तुम भी...

बदल जाती है तो बस

जिंदगी की रफ़्तार...

खो जाती है वो फुर्सत वाली शामें

और वो अलसाई दिल्ली की सड़कें

सर्द रातों में हाथ पकड़ कर घूमना...

खो जाते हैं हम और तुम

अनजाने शहर में

अजनबी लोगों के बीच...

रह जाती है बस

एक याद वाली पगडण्डी

एक आधा बांटा हुआ चाँद

और अलाव के इर्द गिर्द

गाये हुए गीतों के कतरे...

छः मंजिल सीढियों पर रेस लगाना

रात के teen बजे पराठे खाना

और चिल्लड़ गिन कर झगड़ना

कॉफी या सिगरेट खरीदने के बारे में...

कोहरे से तुम्हें आते हुए देखना

और फ़िर गुम हो जाना उसी कोहरे में

हम दोनों का...

आज उन्ही तारीखों में

मैं हूँ, तुम भी हो...जिंदगी भी है

अगर कुछ खो गया है तो बस

वो शहर ...जहाँ हमें मुहब्बत हुयी थी

दिल्ली, तेरी गलियों का

वो इश्क याद आता है...

जिंदगी...यादें...और कोरे पन्ने

इतवार...वैसे तो बहुत से कारण होते हैं इंतज़ार करने के...पर ये इतवार थोड़ा अलग है।

मैंने डॉक्युमेंटरी पहले भी बनाई है, पर फिल्मों का पहला अनुभव है...भले ही अतिलघु फ़िल्म कह लें। पिछली पोस्ट पर जो कहानी थी, उसे ही शूट करने वाले हैं। और जैसा की छोटे प्रोजेक्ट्स में होता है...लीड रोल भी मुझे ही करना है...हालाँकि मुझे डायरेक्शन और लिखने में ज्यादा मज़ा आता है। पर सोचा एक बार भूत बन के भी देख लिया जाए। मज़ा तो आएगा ही।

अगले सन्डे एडिट करके तैयार हो जायेगी तो अपलोड भी कर दूंगी...आज बस सोच के अच्छा लगा रहा है और डर भी। उम्मीद है सब अच्छा ही होगा।

क्या जरूरी है

जिंदगी की किताब के

हर पन्ने पर कुछ लिखा हो

कुछ पन्ने तो कोरे रहने दो...

कभी यादों को अपने रंग में रंगने का मन किया तो?

12 December, 2008

वो सिगरेट

कल सुबह १० बजे के पहले मुझे अपने एडिटर को एक आर्टिकल मेल करनी है...रात के ९ बजे रहे हैं और दिमाग कोरा कागज बना हुआ है...सारे शब्द जाने कहाँ चले गए हैं, भला ये भी कोई तफरीह करने का वक्त है। रोज आफिस में डरावने मेल आते हैं, ५० लोगो की कटौती होने वाली है, प्रोफिट नहीं हो रहा कंपनी को, बोनस तो छोड़ो इस मुश्किल वक्त में नौकरी बच जाए यही गनीमत होगी। और इस नौकरी के लिए जरूरी था कि मैं एक तडकता भड़कता सा आर्टिकल लिख के मेल करूँ, कि एडिटर देखते ही खुश हो जाए कि भाई मैगजीन मेरे ही कारण बिकती है। पर क्या लिखूं...

इतने में दरवाजे पर दस्तक होती है, अब इतनी रात को कौन आ गया दिमाग खाने, मैं मन ही मन भुनभुनाता हुआ उठा। दरवाजा खोला तो सामने तन्वी खड़ी थी, मेरी स्कूल की दोस्त...मुझे लगा ज्यादा काम के कारण मेरे दिमाग में शोर्ट शर्किट हो गया है...८ साल बाद ये तन्वी कहाँ से टपक पड़ी। "अबे...मैं कोई दरबान नज़र आती हूँ जो तेरे घर के गेट पर पहरा दूंगी...रास्ता दे ढक्कन।" और वो मुझे लगभग धकेलती हुयी घर में चली आई...अगर कोई शक था भी तो उसकी आवाज और टोन से दूर हो गया। मुझे इस तरह से बिना किसी संबोधन के तन्वी के सिवा कोई बात नहीं कर सकता था।

"तन्वी, ये आसमान किधर से फटा और तू किधर से टपकी...मोटी!! मेरा पता कहाँ से मिला !!??", मैं चकित था, उसके ऐसे बिना बताये आने पर। "इंटरपोल, एफ्बीअई...हर जगह तो तू है न, मोस्ट वांटेड लिस्ट पर...तो बस ढूंढ लिया, यार तू भी हद्द करता है, इत्ते से बैंगलोर में तेरा पता ढूंढ़ना कोई मुश्किल बात है क्या। इतने सालों बाद आई हूँ तुझसे मिलने और तू खुश होने की बजाई जिरह कर रहा है, पुलिसवाला हो गया है क्या?" दन्न से गोली की तरह जवाब आया...बाप रे वो बचपन से ऐसे ही बोलती थी, बिना कौमा फुलस्टॉप के हमने तो उसका नाम ही टेप रिकॉर्डर रख दिया था। " नहीं, मेरी माँ मैं तो ऐसे ही पूछ रहा था, तेरे जैसी महान आत्मा के लिए कुछ भी पता करना बड़ी बात थोड़े है."

और अब पूछताछ करने की बारी उसकी थी, इसके पहले की मैं रोकता वो पूरे घर का मुआयना करने चल पड़ी थी..."यार ये इतना साफ़ सुथरा घर तेरा तो नहीं हो सकता, गर्लफ्रेंड है क्या?"।"हाँ, है...५० साल की अम्मा है, सारी सफाई उन्ही की देन है, खाना भी बना के खिलाती है...वैसे उम्र थोडी ज्यादा है पर तू कहेगी तो मैं शादी कर लूँगा उससे. तेरे लिए कुछ भी यार".वो जहाँ थी उसके हाथ में जो पकड़ आया खींच के मारा था उसने, वो तो गनीमत है कि रबड़ बॉल था, वरना तो मेरा सर गया था.

किचन में बियर कैन का अम्बार लगा हुआ था, " छि छि बुबाई तू दारू पीने लगा है, सोच आंटी को पता चला तो क्या होगा?". वो आफत की पुड़िया अब कमरे में आ चुकी थी वापस इंस्पेक्शन ख़त्म हो गया था. " ऐ तन्वी तुझे कितनी बार कहा मुझे ये बुबाई बाबी मत बुलाया कर , तू सुधरेगी नहीं...और मम्मी को बोलने कि सोचना मत..वरना..."
"ओहो धमकी...क्या कर लेगा रे, जा मैं बोल दूंगी...अभी फ़ोन लगाउँ क्या?"
"ना रे मेरे पिछले जनम की दुश्मन, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है. पूरे हफ्ते मेहनत करके थोड़े बहुत पैसे कमाता हूँ, अगर बियर में डाल के पी जाऊ तो तेरे पेट में क्यों दर्द हो रहा है. जिस दिन तेरे बैंक अकाउंट से पैसे गायब करूँ उस दिन मम्मी को बोल देना, मैं भी कुछ नहीं करूँगा.२५ साल का हो गया हूँ, मेरे देश का संविधान मुझे यह अधिकार देता है कि मैं जिस ब्रांड की अफोर्ड कर सकता हूँ, दारू पियूं, और तू क्या प्राइम मिनिस्टर है। मम्मी न हुयी विपक्ष की नेता हो गई. और तू मेरे साइड में है कि उसकी?"

"नील, एक सीरियस प्रॉब्लम है"...मुझे लगता है उसने शायद जिंदगी में पहली बार मेरा नाम लिया था...उसके पहले तो मैं हमेशा ढक्कन और गधा और उल्लू और जाने क्या क्या था उसके लिए...नहीं तो मेरे घर ने नाम बुबाई से हमेशा चिढ़ाते रहती थी. थोड़ा परेशां हो गया...तन्वी ऐसे लड़की नहीं है जिसे कोई परेशानी हो और वो इस तरह गम होकर बोले."क्या प्रॉब्लम है यार, तू बोल, मैं हूँ ना""यार तू घिसे हुए डायलॉग बहुत मारता है, मेरी जिंदगी में तुझसे बड़ी प्रॉब्लम भी भला आई है कभी...बड़ा आया मैं हूँ न, हुंह. खैर, प्रॉब्लम ये है कि मुझे भूख लगी है."
"ओफ्फो भुक्खड़..रात के बारह बजे भूख लगी है, जब ९ बजे मेरे घर आ रही थी तो खा के नहीं आ सकती थी...किचन में मैगी है, ख़ुद बनाएगी कि मैं बनाऊं?"
"बाप रे कंजूस मक्खीचूस...मैं नहीं जा रही मैगी खाने...मुझे पिज्जा खाना है. और पैसे भी तू ही दे, आख़िर तू लड़का है और मैं तेरी बचपन की दोस्त हूँ, और उम्र से तुझसे तीन महीने छोटी भी हूँ...और हाँ मैं अपने हिस्से के पैसे भी नहीं दूंगी".
"नहीं मांगूंगा, अम्मा...मेरी मजाल मैं तेरे से पैसे मांगूं...बोल कौन सा पिज्जा खायेगी..."
और इसके बाद हम आराम से पिज्जा खा रहे थे। भला हो होम डिलिवरी वालों का, बेचारे २४ घंटे हम जैसे लोगो की जान बचाते फिरते हैं।
उसने पॉकेट से सिगरेट का एक पैकेट निकला...मार्लबोरो माइल्ड्स. "सुट्टा?"मैं जैसे आसमान से गिरा..."तन्वी, तू lung कैंसर से मारेगी, पागल हो गई है क्या, ये सिगरेट कब से शुरू कर दी, मुझे बताया तक नहीं...""लेक्चर मत झाड़...सुट्टा मरना है...नहीं मारना है? और तुझे कैसे पता मैं कैसे मरूंगी...तेरे सपने में आके यमराज ने भविष्यवाणी की है...मैं सुट्टा मारना छोड़ दूँ तो नहीं मरूंगी...साला फट्टू."
अब इसपर कोई क्या कह सकता है, तो मैंने भी कुछ नहीं कहा, चुप चाप हाथ बढ़ा के सिगरेट ली, और बेद के नीचे से ऐशट्रे निकाल के आगे कर दी.
उसने एक गहरा कश ले कर कहा "और तू क्या जानता है मरना क्या होता है...एक फ्लैश और ख़त्म, पता भी नहीं चलता कि मर गए हैं."
"हाँ हाँ मरने पर भी तुने Ph. D की है, भटकती आत्मा, यमराज का इंटरव्यू लिया है तुने, जानता नहीं हूँ तेरे को. फ़िर से कविता का भूत चढ़ने वाला है तुझपर, और मेरे पास भागने की कोई जगह भी नहीं है. मुझे बख्श दे मेरी माँ. एक राउंड नहीं हो पायेगा आज."
"तथास्तु...और कुछ मांग ले बच्चा, हम तेरी प्रार्थना से प्रसन्न हुए।" उसका अंदाज़ वाकई सबसे जुदा था।आज शायद इतने सालों में मैं उसे पहली बार ध्यान से देखा था, शायद इसलिए क्योंकि बहुत दिन हो भी गए थे। वो काफ़ी खूबसूरत लग रही थी।"क्या हुआ?""तू हमेशा से इतनी सुंदर थी क्या?""नहीं, मैंने फेस इम्प्लांट कराया है...ऐश्वर्या कि आँखें, प्रीती के डिम्पल...माधुरी की स्माइल...ओफ्फ्फो लाइन मार रहा है मुझपर, अभी एक कराटे चॉप पड़ेगा न, तीन जनम तक याद रहेगा""तू सीधी तरह से किसी बात का जवाब नहीं देती क्या...दो बात प्यार कि बोल लेगी तो क्या पैसे लगेंगे। मैं गुस्सा हो रहा था उसपर" और वो ठठा के हंस पड़ी..."सीधी बात, तुझसे...तू मुझे प्रभु चावला समझता है क्या...यार इतना नहीं हो पायेगा।"

"चल छोड़, क्या चल रहा है लाइफ में?""बस यार ताज में फैशन शो है, ब्राइड्स ऑफ़ इंडिया पर, तो थोड़ा बिजी हूँ. वरना तो वही..महीनों बस प्लान चलता रहता है. थोड़ा बहुत लिख लेती हूँ कभी कभी. बस, तू बता?""मेरा भी कुछ खास नहीं, रोज़ की एडिटर से खिच खिच, पिछले महीने एक लम्बा फीचर लिखा था, काफ़ी तारीफ़ आई थी...आजकल कोस्ट कटिंग में बोनस मार लिया सालों ने. अगले हफ्ते घर जा रहा हूँ. बहुत दिन हो गए."

थोडी देर की खामोशी...जिंदगी के बारे में बात करो तो अक्सर ऐसा हो जाता है. एक पर एक सिगरेट जलती रही बस आखिरी सिगरेट बची थी."जानता है आखिरी सिगरेट किसी से बाँट रहे हैं तो वो कोई बहुत करीबी होता है..."और बस जैसे आई थी एक झटके में उठ खड़ी हुयी...हम चलने लगे. एक खामोशी, जिसमें शब्द नहीं होते बस, बाकी बातें होती रहती हैं.

लिफ्ट का दरवाजा जैसे ही बंद हो रहा था, उसने रोका...और मेरी आंखों में कहीं गहरे देखते हुए कहा"जानते हो नील...जिंदगी भर मैं तुमसे एक बात नहीं कह पायी...i love you".

वापस आ के कमरे में बैठा ही था कि फ़ोन बज गया, उधर से मम्मी बोल रही थी..."बुबाई, तन्वी...तन्वी नहीं रही बेटा। अभी अभी उसकी मम्मी का फ़ोन आया था. आज शाम मुंबई में उसका सीरियस एक्सीडेंट हो गया ...स्पौट डेथ। तुम जल्दी फ्लाईट का टिकट कटा के वहां पहुँचो."

ऐशट्रे में अभी भी सिगरेट जल रही थी...जिसपर लिपस्टिक के निशान थे.

10 December, 2008

तीन मिनट की एक कहानी

वो बड़ी मुस्तैदी से तैयार हो रहा है, शरीर के हर अंग पर एक एक करके पिस्तौल बंधे जा रहा है। नौजवान है, यही कोई २० साल का होगा। चेहरे पर एक सख्ती...भावशून्यता...पर अगर आप करीब से देखेंगे तो उसकी आंखों में एक चमक है। एक जिजीविषा जो किसी भी २० साल के लड़के में होनी चाहिए, एक आग...उसकी आंखों में भी नज़र आती है।
पर वो मशीन की तरह तैयार होते जाता है, अपने बैग में एक एक करके ग्रेनेड रख रहा है...साधारण सा दिखने वाला ये बैग, मौत का फरमान बन सकता है किसी भी वक्त। ऐसे ही बैग में हमारे देश के लाखों २० साल के लड़के किताबें और उन किताबों में जाने किसके किसके सपने लेकर घूमते हैं। खिड़की से तिरछी धूप आ रही है कमरे में, गुनगुनी , नर्म जाड़े की धूप।

वो कोई गीत गुनगुना रहा है, बहुत दर्द है उसकी आवाज में, शायद कोई विरह का गीत है। किससे इतनी दूर चला आया है ये लड़का जो इससे इतनी दूर होकर भी इसकी रूह से गीत बन कर उभर रहा है। क्या माँ बाप, क्या कोई सांवली, बड़ी बड़ी आंखों वाली लड़की है...मालूम नहीं। बालों में जेल लगता है, और बड़ी अदा से कंघी करता है, चेहरे पर फेयर एंड हैन्ड्सम लगता है। एक्स का deodrant, बिल्कुल जैसे दूल्हा बनने जा रहा हो।

फ़ोन बजता है...माँ दा लाडला बिगड़ गया...रिन्गटोन जैसे एक पल के लिए खामोशी को छिन्न भिन्न कर देता है। "तैयार हो?" उधर से पुछा जाता है, "हाँ", एक छोटा सा जवाब।

अपने पॉकेट से एक बटुआ निकलता है...उसमें एक पुराणी तस्वीर है, जर्द और पीली पड़ी हुयी। माँ, पिता और छोटी बहन के साथ वो। उसकी आंखों के आगे एक दहकता मंज़र आ जाता है, चरों तरफ़ आग कि लपटें...चीख पुकार। और फ़िर एक सन्नाटा...जिस सन्नाटे से उसे असद चाचा उठा कर ले आए थे। उस दिन से वही उसके रहनुमा है, माँ पिता से ज्यादा प्यार दिया उन्होंने, उसे तालीम दिलाई, अपने साथ के लोगों से मिलवाया। और आज वो उनके बेटे से भी बढ़कर है। इसलिए तो आज उसे ये शहादत का मौका मिला है, काफिरों पर कहर ढाएगा वो आज। वही काफिर जिन्होंने उसे उसके परिवार से अलग किया। आज उसके बदले का दिन है।

मुंबई के छत्रपति शिवाजी टर्मिनस पर अंधाधुंध गोलियां चलता है वो...और तेज़ी से ग्रेनेड फेकते हुए वहां से भागता है...पर पुलिस की गाड़ी पीछा करने लगती है...सायरन कि आवाज बड़ी तेज़ी से उसका पीछा कर रही है...वह भागता है, इतनी तेज़ जितना कि कभी नहीं bhaaga था। संकरी गलियों में, घरों के सारे दरवाजे बंद हैं, सारे दरवाजे खटखटाता है...कोई सुनवाई नहीं।

एक दरवाजे पर जैसे ही हाथ लगता है कि खुल जाता है, सांझ के गहराते अंधेरे में वो हर दिशा में गोली चलता है...बिना देखे हुए...बिना सोचे हुए...एक ही क्षण में उसके चारों तरफ़ लाशें गिर जाती हैं। वो चैन की साँस लेता है, दरवाजा बंद करता है और गले में पड़े ताबीज को चूमता है। घर के अन्दर बढ़ता है कि तभी अजान की आवाज आती है। वजू करके वह कमरे में नमाज पढने बैठा है...

कमरे में एक ही दिया जल रहा है...वह जैसे ही अपने दायीं तरफ़ देखता है....एक चीख उसके गले में ही घुट जाती है ...
पूजाघर में बाकी देवताओं के साथ एक और तस्वीर लगी थी जिसमें उसके माता पिता और वो ख़ुद था...उसपर भी फूलों की एक माला टंगी हुयी थी, तस्वीर के नीचे कई राखियाँ सजी हुयी थी.

09 December, 2008

ख्वाब इक नया चाहता हूँ

ऐसे हालातों में भी क्या चाहता हूँ
जाने क्यों ख्वाब इक नया चाहता हूँ

खून फैला हुआ है सड़कों पर
और मैं रंग भरा आसमाँ चाहता हूँ

आजकल सड़कों पे मौत घूमती है
मैं अपने लिए भी एक दुआ चाहता हूँ

मन्दिर में है कि मस्जिद में, या कि कहीं और
सुकून लाये जमीं पर वो खुदा चाहता हूँ

बिखरे हुए जिस्मों में पहचान ढूंढता हूँ
कल से है गुमशुदा वो आशना चाहता हूँ

बस एक अमन का ही तो ख्वाब देखा मैंने
और वो खुदा कहता है मैं कितना चाहता हूँ

08 December, 2008

अँधेरी रात में दीपक जलाये कौन बैठा है

२०० पोस्ट हो गए। सोचा था कुछ अच्छा लिखूंगी...कुछ खूबसूरत, बिल्कुल अलग सा अहसास लिए हुए।

मगर अब लगता है शायद खूबसूरत अहसास ख़त्म हो गए हैं। मुझे नहीं मालूम कि मुंबई धमाकों से इतना ज्यादा परेशान क्यों हूँ, शायद तीन दिन तक एक हादसे के ख़त्म होने का इंतज़ार करना एक अलग तरह की दहशत को जन्म देता है। असुरक्षा की भावना इतने गहरे बैठ गई है कि जिंदगी पटरी पर आने का नाम ही नहीं लेती। एक मित्र से बात कर रही थी इसी मुद्दे को लेकर...आश्चर्य लगा जब उसने कहा कि तू इतनी परेशान हो रही है, for an event that has not even directly affected you। तो क्या अगर मेरा कोई अपना उस ब्लास्ट में मरता तो ही किसी घटना को मुझे अफ्फेक्ट करना चाहिए...शायद ऐसा होता है...शायद ऐसा हर बार हुआ हो। पर इस बार मेरे साथ ऐसा नहीं हुआ है।

जब दिल्ली में थी तो जैसे आदत सी पड़ गई थी, यहाँ बंगलोर आई तो आने के एक हफ्ते बाद ही यहाँ भी ब्लास्ट हो गया। लगा कि अपने ही देश में हम निश्चिंत क्यों नहीं रह सकते। अब यहाँ ६ महीने के पहले वोटर id कार्ड तो बनेगा नहीं, तो इंतज़ार कर रही हूँ, जनवरी में नाम के लिए अप्लाय करुँगी। आज इलेक्शंस हुए और कहीं भाजपा तो कहीं कांग्रेस जीती, हालाँकि इससे ये नहीं कहा जा सकता कि आने वाले लोकसभा चुनावों का क्या हाल रहेगा...पर मुझे सच में आश्चर्य होता है कि लोगों ने अभी भी कांग्रेस को वोट कैसे दिया। यही तो तरीका है जताने का कि हम खुश नहीं हैं, अपने आसपास के हालातों से, हमारे जीने के तरीके से। एक बेसिक सुरक्षा का हक तो है हमें...जिन्दा रहने का हक।क्या ऐसा इसलिए हो रहा है कि वाकई परवाह नही है बन धमाकों कई, कि एक आम आदमी को चिंता नहीं है, और ये जो इतना हल्ला हो रहा है, थम जायेगा रुक जायेगा। पब्लिक की याद्दाश्त बहुत कमजोर होती है। वक़्त आने पर ये भी भूल जायेगी कि हमें वोट देने जाना है।

पिछले हफ्ते मैंने एक फ़िल्म डायरेक्शन पर वर्कशॉप में हिस्सा लिया था। अब हमें एक फ़िल्म बनानी है ३-५ मिनट की, मैं सोच रही हूँ कि कुछ ऐसा बनाउँ जिसे देखकर लोग घर से निकलने पर मजबूर हो जाएँ। देखें कैसी होती है कहानी और कितना असरदार होता है...जल्दी ही पोस्ट करुँगी।

"वो मुतमईन हैं कि पत्थर पिघल नहीं सकता

मैं बेकरार हूँ आवाज़ में असर के लिए "

- दुष्यंत कुमार

२००वीं पोस्ट मेरे देश तुझको समर्पित

07 December, 2008

मैं तुम्हें कविता में मिलूंगी

देश में होने वाले अनगिन ब्लास्ट में

अगर मैं मर जाऊं

मुझे कविता में ढूंढ़ना...

गुलमोहर रो रहे होंगे

हर साल वसंत में

आक्रोश भी उभरेगा दहकते फूलों में

मैं नहीं रहूंगी लेकिन...

बारिशें भी, गाहे बगाहे

कभी जनवरी में भी

भिगा जायेंगी

दिल्ली की सड़कें

जहाँ खून गिरा होगा मेरा...

नाराज होकर घर से मत जाओ

एक दिन भी

जाने तुम्हारे लौट आने तक

जो surprise गिफ्ट खरीदने निकली थी

चिथड़े हो चुका हो...

किसी आतंकवादी को कहाँ मालूम होगा

मेरा जन्मदिन, या वर्षगांठ

उनके प्लान्स तो बहुत पहले से बनते हैं

३०० लोग में किसी न किसी का तो हो ही सकता है

तारीखों से क्या फर्क पड़ता है...

शब्दों में समेट देती हूँ

ढेर सारा प्यार

इन्हें खोल के देख लेना

मैं तुम्हें कविता में मिलूंगी...

PS: कृपया इसे कविता समझ कर न पढ़ें, आजकल बहुत परेशान हूँ, कुछ तारतम्य नहीं है शब्दों में। लिख रही हूँ क्योंकि लिखे बिना रह नहीं सकती। जी रही हूँ क्योंकि अभी तक माँ का हाथ है सर पर.

05 December, 2008

हमारे जवान: एक चित्रण

मेरे IIMC के एक मित्र अंकुर ओगरा ने कल एक मेल भेजी थी, उसके पिता ने लिखी थी, वो इंडियन एयरफोर्स में पायलट रह चुके हैं। मुंबई में हो रहे हमलों के दरमयान उन्होंने लिखा था। वो मूलतः कश्मीर के रहने वाले हैं पर अब दिल्ली में पूरा परिवार रह रहा है।

अनुवाद इसलिए नहीं किया है क्योंकि मेरा मानना है की अनुवाद में कई बार मूल भाव खो जाता है।

Half Man Half Boy
The average age of the army man is 23 years। He is a short haired, tight-muscled kid who, under normal circumstances is considered by society as half man, half boy. Not yet dry behind the ears, not old enough to buy a beer in the capital of his country, but old enough to die for his country.


He's a recent school or college graduate; he was probably an average student from one of the Kendriya Vidyalayas, pursued some form of sport activities, drives a rickety bicycle, and had a girlfriend that either broke up with him when he left, or swears to be waiting when he returns from half a world away। He listens to rock and roll or hip -hop or bhangra or gazals and a 155mm howitzer.


He is 5 or 7 kilos lighter now than when he was at home because he is working or fighting the insurgents or standing guard on the icy Himalayas from before dawn to well after dusk or he is at Mumbai engaging the terrorists। He has trouble spelling, thus letter writing is a pain for him, but he can field strip a rifle in 30 seconds and reassemble it in less time in the dark. He can recite to you the nomenclature of a machine gun or grenade launcher and use either one effectively if he must.


He digs foxholes and latrines and can apply first aid like a professional. He can march until he is told to stop, or stop until he is told to march. He obeys orders instantly and without hesitation, but he is not without spirit or individual dignity. His pride and self-respect, he does not lack. He is self-sufficient। He has two sets of combat dress: he washes one and wears the other. He keeps his water bottle full and his feet dry. He sometimes forgets to brush his teeth, but never to clean his rifle. He can cook his own meals, mend his own clothes, and fix his own wounds. If you're thirsty, he'll share his water with you; if you are hungry, his food. He'll even split his ammunition with you in the midst of battle when you run low.


He has learned to use his hands like weapons and weapons like they were his hands। He can save your life - or take it, because he's been trained for both.He will often do twice the work of a civilian, draw half the pay, and still find ironic humor in it all. He has seen more suffering and death than he should have in his short lifetime.


He has wept in public and in private, for friends who have fallen in combat and is unashamed to do so।


He feels every note of the Jana Gana Mana vibrate through his body while at rigid attention, while tempering the burning desire to 'square-away' those around him who haven't bothered to stand, remove their hands from their pockets, or even stop talking। In an odd twist, day in and day out, far from home, he defends their right to be disrespectful. Just as did his Father, Grandfather, and Great-grandfather, he is paying the price for our freedom. Beardless or not, he is not a boy. He is your nation's Fighting Man that has kept this country free and defended your right to Freedom. He has experienced deprivation and adversity, and has seen his buddies falling to bullets and maimed and blown. And he smiles at the irony of the IAS babu and politician reducing his status year after year and the unkindest cut of all, even reducing his salary and asking why he should get 24 eggs a week free! And when he silently whispers in protest, the same politician and babu aghast, suggest he's mutinying! Wake up citizens of India! Let's begin discriminating between the saviours of India and the traitors!


- Flt. Lt. Rajiv Tyagi

04 December, 2008

कल हो न हो...

मैं सोचती हूँ तुमसे कहूँ
हैदराबाद जाने का प्रोग्राम कैंसिल कर दो
बॉम्बे में जो ब्लास्ट हुआ है
आतंकवादियों ने डेकन मुजाहिदीन का नाम लिखा था
और इंडिया टीवी में तो ख़बर की थी
हैदराबाद को अलग कर दो

माँ कहती थी
अशुभ बातें कहने से सच हो जाती हैं
तुम चले जाते हो

मैं सोचती हूँ पूजा करूंगी आज
पर मन नहीं करता है...

कहीं भी जाने का मन नहीं करता
दिन भर टीवी नहीं खोलती हूँ
सुबह अखबार नहीं पढ़ती
और जब तक तुम वापस नहीं आ जाते

डरती रहती हूँ हर आहट पर
हर घंटे तुम्हें फ़ोन नहीं करती

पर सोचती हूँ कि कर लूँ
निश्चिंत तो हो जाउंगी

कपड़े खरीदने हैं

पर मॉल नहीं जा रही

रोज़ टाल देती हूँ
दिल में अजीब अजीब से ख्याल आते हैं

कुछ हो न जाए किसी दिन अचानक

एक गाना सुना था कभी

जाने क्यों याद आने लगता है

if tommorow never comes

will she ever know how much i loved her

did the love i give her in the past

would be enough to last

if tommorow never comes...







03 December, 2008

देखना है जोर कितना बाजू ऐ कातिल में है

आज कुछ नहीं कहूँगी...बस ये विडियो पोस्ट कर रही हूँ। जब भी देखती हूँ रोंगटे खड़े हो जाते हैं। रंग दे बसंती से ये दो क्लिप कुछ कुछ राहत देते हैं।
जब भी सुनती हूँ तो लगता है कहीं कोई हलचल होने लगी है दिल में, कुछ करने का जज्बा जोर मारने लगता है। मुझे लगता है कि आज ऐसे कुछ और शायरों की जरूरत है, वही हम सब को इस नींद से झकझोर कर उठा सकते हैं।
सरफरोशी कि तमन्ना अब हमारे दिल में है...



02 December, 2008

अक्सर एक व्यथा यात्रा बन जाती है

बहुत दिन बाद ये कविता पढ़ी, इसका शीर्षक जाने किस सन्दर्भ में मेरी जिंदगी में बहुत मायने रखता है। कितना भी याद करूँ, याद नहीं आ रहा कि कहाँ सुनी थी इसकी पहली पंक्ति। आज मेरे मित्र शशि के सौजन्य से ये कविता फ़िर से पढने को मिली।
आजकल जिस तरह के हालात हैं, और जैसी मेरी मनोस्थिति है, कुछ पंक्तियों ने मर्म को स्पर्श किया है। मुझे ये पंक्ति खास तौर से पसंद है.."अक्सर एक लीक दूर पार से बुलाती है ." सोचा आप सब से भी बाँट लूँ....सर्वेश्वर सयाल सक्सेना की ये कविता।

अक्सर एक गंध
मेरे पास से गुज़र जाती है,
अक्सर एक नदी
मेरे सामने भर जाती है,
अक्सर एक नाव
आकर तट से टकराती है,
अक्सर एक लीक
दूर पार से बुलाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहीँ पर बैठ जाता हूँ,
अक्सर एक प्रतिमा
धूल में बन जाती है ।
अक्सर चाँद जेब में
पड़ा हुआ मिलता है,
सूरज को गिलहरी
पेड़ पर बैठी खाती है,
अक्सर दुनिया
मटर का दाना हो जाती है,
एक हथेली पर
पूरी बस जाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहां से उठ जाता हूँ,
अक्सर रात चींटी-सी
रेंगती हुई आती है ।
अक्सर एक हँसी
ठंडी हवा-सी चलती है,
अक्सर एक दृष्टि
कनटोप-सा लगाती है,
अक्सर एक बात
पर्वत-सी खड़ी होती है,
अक्सर एक ख़ामोशी
मुझे कपड़े पहनाती है ।
मैं जहाँ होता हूँ
वहाँ से चल पड़ता हूँ,
अक्सर एक व्यथा
यात्रा बन जाती है ।

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