27 September, 2012

अ-तीत

साइकिल एक टाइम मशीन है...पैडल पर पाँव पड़ते हैं तो आसपास का सारा दृश्य भूतकाल में परिवर्तित होने लगता है. जैसे जैसे उसके पहिये घूमते हैं समय का चक्र भी उल्टा घूमने लगता है. साइकिल चलाते हुए अचानक से दुनिया एकदम खामोश पड़ने लगती है और कुछ आवाजें ज्यादा स्पष्ट सुनाई देने लगती हैं. बचपन के नाम याद आने लगते हैं. देर रात साइकिल चलाते हुए हमेशा घर पहुँच कर पड़ने वाली डांट का शुबहा साइकिल कैरियर में बंध जाता है. शहर में हवा तेज़ी से चलती है...लड़की को अपना घर याद आता है जहाँ उसने बचपन में साइकिल सीखी थी. ऐसी ही तीखी ढलान वाली सड़क हुआ करती थी.

लगभग दस साल हो गए हैं जबसे उसने आखिरी बार साइकिल को हाथ लगाया है. नयी साइकिल है, शुरू शुरू में चलाने में दिक्कत हुयी है मगर फिर आदत सी पड़ने लगी है. साइकिल चलाना आप एक बार सीख कर कभी नहीं भूल सकते हैं ऐसा किसी ने कहा था. उसे ठीक ठीक याद नहीं कि साइकिल खरीदने का मन क्यूँ किया...शायद ऑफिस जाने के लिए या फिर ऐसे ही. रोज़ रात का रूटीन सा बन गया है...ऑफिस से घर जाना...कार पार्क करना...ऊपर जा कर लैपटॉप और बाकी सामान रखना. स्पोर्ट्स शूज पहनना और सब्जी लाने के लिए निकलना. सब्जियां फ्रिज में रख कर बोतल में पानी भरना. एक ऊँची पोनीटेल बनाना...डियो स्प्रे करना, घड़ी बदलना. आईने में खुद को देखना. आईने में हर बार कोई १२ साल की लड़की क्यूँ दिखती है?

मोहल्ले में एक तीखी ढलान वाली सड़क है. रिहाइशी इलाका है तो रात को बहुत कम गाड़ियां आती जाती हैं, कभी कभार कोई कार या मोटरसाइकिल गुज़रती है. लोग नौ बजे तक तो टहलते दिख जाते हैं मगर उसके बाद सड़कें सुनसान होने लगती हैं...घरों का शोर भी म्यूट पर चला जाता है. जैसा कि देश के हर मोहल्ले में होता है, कुछ स्ट्रीटलैम्प्स फ्यूज रहते हैं तो उन टुकड़ों पर अँधेरा रहता है. माहौल को अलग अलग तरीके से इंटरप्रेट किया जा सकता है मनोदशा के मुताबिक. कुछ लोगों को डर भी लग सकता है. लेकिन जैसा कि मेरी कहानी के किरदारों के साथ अक्सर होता है...लड़की को डर नहीं लगता है.

कमोबेश हर घर के आगे एक दरबान ऊँघता दिखता है. देर रात कुछ लोग कुत्तों को टहलाते हुए भी दिख जाते हैं. लड़की को कुत्ते कभी पसंद नहीं आते. यही वक्त सड़क के आवारा कुत्तों के जमीनी संघर्ष का भी होता है. वे अपना अपना इलाका निर्धारित करते रहते हैं. ऐसे में अक्सर किसी एक कुत्ते के खदेड़े जाने की गवाह भी  बनना होता है लड़की को. कुछ कुत्ते सड़क पर निर्विकार पड़े रहते हैं...दुनिया से दया की आखिरी उम्मीद उन्हें ही है.

रात की अपनी गंध होती है. अलग अलग फूलों की गंध झोंके के साथ आती है जब वो उन घरों के आसपास से गुज़रती है. इतने दिनों में उसे याद हो आया है कि किस घर के पास से रातरानी की गंध आती है, कहाँ गंधराज खिलता है और कहाँ मालती की उदास गंध उसे छूने को पीछे भागती है. साइकिल के हर चक्कर के साथ खुशबुएं बदलती रहती है...हर बार जब लड़की उन खुशबूदार घरों के आसपास से गुज़रती है तो खुशबू की एक तह उसके ऊपर लगती जाती है...गंध का अपना मनोविज्ञान और रसायनशास्त्र होता है. वो जब घर से चलती है कोई और होती है मगर कोई घंटे डेढ़ घंटे बाद वो कोई और होने लगती है. लड़की का इत्र हवाओं में बिखरने लगता है...वो थोड़ी थोड़ी घुलने लगती है...साइकिल के हर राउंड के साथ.

तीखी ढलान पर उतरते हुए लड़की साइकिल लहराती हुयी चलती है...हैंडिल को तीखे झटके देती है...जैसे साइकिल न चलाती है नृत्य कर रही हो...यक़ीनन गुज़रते हर सेकण्ड के साथ वो रिदम में होती है. साइकिल के हैंडल के दो लेवल हैं...ऊपर का लेवल वो ऐसे थामती है जैसे बॉल डांसिंग करने के लिए अपने पार्टनर के कंधे पर हाथ रखा हो...बेहद हलके. आधी ढलान आते वो दोनों हाथ छोड़ देती है जैसे लड़के ने ट्वर्ल किया हो उसे और वो एक पूरा गोल चक्कर काट कर वापस उसकी बाँहों में आएगी. ढलान की आखिर में एक स्पीडब्रेकर है जहाँ से वो दायें मुड़ती है और जाहिर तौर से मुड़ने के पहले ब्रेक नहीं लगाती है. अगर आपने बॉल डांस देखा है तो जानते होंगे कि उसके एक स्टेप में लड़का अपनी पार्टनर को लगभग जमीन तक झुका कर वापस खींचता है...ये कुछ वैसा ही होता है...मुड़ते हुए वो पैंतालीस डिग्री का कोण बना कर झुकती है...साइकिल का कलेजा मुंह को आता है कि नहीं मालूम नहीं पर सड़क जरूर उसके सरफिरेपन पर परेशान हो जाती है.

चढ़ाई के अंत में दो लैम्पपोस्ट हैं. एक की लाईट किसी उदास दिन बारिश की मार खा कर ऐसे उदास हुयी कि फिर नहीं जली...दूसरे छोर पर उसे मुंह चिढ़ाता सौतेला लैम्पपोस्ट है. लड़की बारी बारी से इन दोनों के नीचे रुकती है. साइकिल के कैरियर से पानी की बोतल को आज़ाद करती है और सांसों को काबू में करती हुयी घूँट घूँट पानी पीती है. पसीने से भीगा उसका चेहरा लैम्प की पीली रौशनी में अजीब खूबसूरत दिखता है. देखने वाले को ऐसा लग सकता है कि लैम्प से हुस्न की बारिश हो रही है, इस लैम्पपोस्ट के नीचे खड़ी कोई भी लड़की सुन्दर लगेगी...मगर ऐसे देर रात तीखी ढलान पर साइकिल चलाने वाली लड़की पहले आये तो सही...फिर वहाँ लैम्पपोस्ट के नीचे रुके तो सही. ऐसे हसीन वाकये जिंदगी में कम होते जा रहे हैं.
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एक खुशनुमा सी रात थी. चाँद का पहला कतरा आसमान में हाजिरी लगा रहा था. लैम्पोस्ट की रौशनी थी...चार लड़के खाना खाने के बाद सिगरेट खरीदने निकले थे. तेरा मेरा करके सिगरेट का स्टॉक खत्म हो गया था, वीकेंड की बची हुयी बियर भी खत्म थी. चलते हुए डिसाइड हुआ कि बियर भी खरीद ली जाए. ऑफिस में साथ काम करती लड़कियों के नाम से एक दूसरे को चिढ़ाते वो बीच सड़क पर चल रहे थे कि घंटी की आवाज़ से  अचानक साइड होना पड़ा. गाली देने के लिए मुंह खोला ही था कि सन्न से वो साइकिल आगे निकल गयी. साइकिल पर एक लड़की थी...टी शर्ट के ऊपर झूलती पोनीटेल और जींस. उम्र का अंदाजा करना मुश्किल था मगर पीछे से अच्छी लगी. चारों की बातों का रुख लड़की की ओर मुड़ गया. पहले कभी तो नहीं दिखी थी इधर...शायद नयी आई है मोहल्ले में. जाने शहर में भी.

जितनी देर में वे टहलते हुए सड़क के मोड़ पर पहुंचे लड़की चार बार राउंड लगा चुकी थी जिसमें तीन बार लैम्प पोस्ट के नीचे रुक कर उसने पानी पिया था. बातों बातों में लड़कों में शर्त लग गयी कि लड़की से बात करके दिखाओ. तीन बार रुकी है, चौथी बार भी रुकेगी ही...जिसने बात कर ली उसके बियर के पैसे बाकी लोग देंगे. फिर लगा कि चारों लड़के अगर उसी मोड़ पर खड़े रहे तो शायद वो रुके न...इसलिए दो लड़कों ने हिम्मत की. ऊपर ऊपर वे दिखा रहे थे जैसे बहुत साधारण सी बात है मगर ऐसे लड़की को टोक कर कुछ बोलने में उन्हें भी समझ नहीं आ रहा था कि बात कैसे शुरू की जाए. हीरो बनकर आगे तो आ गए थे पर लेकिन लड़की अगर एक बार तेज आवाज़ में डांट भी देती तो इज्ज़त में पलीता लग जाना था.
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'एक्सक्यूज मी'
'यस'
'कैन यू टेल अस व्हेयर सेवंथ मेन इज?'
'सेवंथ मेन....अम्म्म्म....'
लड़की ने पानी का पहला ही घूँट लिया था...चढ़ाई में साइकिल चलाने के कारण उसकी सांसें तेज चल रही थीं...गला सूख रहा था...उसने एक घूंट पानी पिया...अपने दायीं ओर दिखाते हुयी बोली....
'सेवंथ मेन इज पैरलल टू दिस रोड.'
उसे संयत होने का वक्त नहीं मिला था, बोलना भी मुश्किल हो रहा था.
'रिलैक्स...रिलैक्स' लड़के को लगा शायद उनके सवाल पूछने से वो हडबड़ा गयी है...
'अपहिल साइक्लिंग' और लड़की ने थोड़ा और पानी पिया.
'हिंदी...इंग्लिश?'
'हिंदी चलेगा'
'कहाँ से हो?'
'बिहार से' लड़की कुछ और जोड़ना चाहती थी जैसे कि इतनी रात गए ऐसे काम बिहारी ही करते हैं या ऐसा कुछ...मगर उसके कहने का टोन अक्खड़ सा था और वैसा ही कुछ कह चुका था.
'यहाँ कैसे आई?'
'उड़ कर' लड़की हँस पड़ी...
'उड़ कर क्यूँ?'
'बिहार बहुत दूर है न...साइकिल से तो आ नहीं सकती थी'
'सेवेंथ मेन इधर से पैरलल वाली सड़क है, दायें से बाएं दिसेंडिंग आर्डर में...ट्वेलफ्थ मेन और इधर सिक्स्थ मेन' लड़की हाथ के इशारे से समझा रही थी.
'यहाँ क्या कर रही हो?'
'तुमने आखिरी बार किसी लड़की से ऐसे टोक कर बात कब की थी?'
'याद नहीं'
'पता है, बिहार में होते तो अभी तक थप्पड़ खा चुके होते, जनता अलग आ जाती पीटने के लिए, सरे राह लड़की छेड़ रहे हो'
'लेकिन बिहार में हैं नहीं न', लड़का थोड़ा सा झेंप गया था.
'तुम्हें डर नहीं लगा?'
'किस चीज़ का डर?'
'भूत होती तो? मम्मी ने बचपन में सिखाया नहीं कि रात-बेरात अकेली लड़की देख कर टोकना नहीं चाहिए'
लड़का एक मिनट चुप...नीचे सर करके सोच रहा है कि जवाब क्या दे...लड़की अपने जूते दिखाते हुए कहती है 'स्पोर्ट्स शूज हैं...पैर उलटे हुए तो पता भी नहीं चलेंगे[बिहार की किम्वदंतियों के हिसाब से चुड़ैल के पैर उलटे होते हैं]
लड़का अब भी सकपकाया हुआ खड़ा था. लड़की ने ही हँसते हुए शुरुआत की...
'घबराओ नहीं, भूत हूँ...चुड़ैल नहीं. खून नहीं पियूंगी तुम्हारा'
इतने में दोनों लड़के एक दूसरे की शक्ल देख रहे थे कि अब चलने का वक्त आ गया कि इससे थोड़ी देर और बात की जा सकती है...लड़की या भूत जो भी थी...उसके पास रहते हुए डर तो एकदम नहीं लग रहा था. अच्छा लग रहा था. जैसे अपनी हमउम्र लड़की से बात करते हुए लगता.
'अच्छा चलो जाने दो, ये बताओ कि इधर क्या कर रहे थे. हम सेवेंथ मेन में खड़े हैं, ऑन सेकण्ड थौट्स तुम लोग ठीक सेवेंथ मेन के बोर्ड से टहलते हुए यहाँ आये हो मुझसे सेवेंथ मेन का पता पूछने. रात के ग्यारह बजे पैदल रास्ता भटके हुए तो लगते नहीं हो, कहाँ जा रहे थे?'
'दूध खत्म हो गया था, चाय पीने निकले थे' सफ़ेद झूठ बोल गया लड़का.
'सिगरेट पीते हो?'
'हाँ'
'दो...'
'अभी नहीं है...दरअसल सिगरेट ही लेने निकले थे, घर पर भी खत्म हो गयी है, बाकी दोस्त पनवाड़ी की दुकान पर इन्तेज़ार कर रहे हैं'
'कितने की शर्त लगायी थी?'
'कैफे कॉफी डे में कॉफी की'
'झूठ अच्छा नहीं बोलते हो...लड़की के सामने तो और भी बुरा'
'हाँ मेरी माँ...बीयर की शर्त लगी थी, तुम तो पीछे ही पड़ गयी'
'रास्ता रोक कर रास्ता पूछो तुम...और पीछे पड़ गयी मैं, कमाल करते हो!'
किसी ने ध्यान नहीं दिया था पर बात करते करते वे चलने लगे थे और अब दूसरा मोड़ सामने खड़ा था...यहाँ से दायें परचून की दूकान थी और बाएं लड़की का नोर्मल रास्ता जिस पर वो शाम से साइकिल चला रही थी.
'अनन्या' लड़की ने हाथ बढाते हुए कहा...
'क्या?'
'अनन्या...मेरा नाम है'
'ओह...अच्छा...मेरा नाम तरुण है और ये मेरा दोस्त है विकास, आगे परचून की दूकान पर दो और नमूने खड़े हैं सुनील और अमित, आज मिलोगी या अगले इंस्टालमेंट में?'
'तुम्हारे घर क्या रोज रोज सिगरेट खतम होती है?'
'अक्सर हो जाती है फिर इधर ही रहते हैं तो कभी न कभी तो मिलोगी ही...उनसे भी आज न कल टकराना ही है...तो आज ही निपटा दें क्या?'
'नहीं रहने दो...आज के लिए तुम काफी हो'
फिर वो उड़नपरी अपनी साइकिल पर उड़नछू हो गयी.
कहना न होगा कि शर्त जीतने की खुशी में उस रात फ्लैट में बीयर की नदियाँ बह रही थीं...तरुण को कंधे पर उठा कर नारे लगाए गए और आखिर में नशे में डूबे बाकी तीनो लड़कों ने कागज़ पर लिख कर क़ुबूल किया कि तू सबमें सबसे बड़ा हीरो है...या ऐसा ही कुछ.
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इसके बाद लगभग रोज का नियम हो गया...रात का खाना खा कर तरुण को रोज बाहर टहलने जाना ही होता था. साथ में कभी विकास तो कभी सुनील या अमित होते और कोई आधा घंटा बतियाते हुए परचून की दूकान तक जाते और वहाँ से फिर अनन्या अपनी साइकिल पर वापस चली जाती. वो तेरी भाभी है जैसे मजाक होने शुरू हो गए थे और तरुण जाने अनजाने थोड़ा अपने कपड़ों पर ध्यान देने लगा था. शाम को घर से बाहर निकलते हुए कोई फोर्मल कपड़े तो नहीं पहन सकता मगर पहले जहाँ कोई भी मुड़ीतुड़ी टीशर्ट चल जाती थी अब कपड़े बकायदा आयरन करके रखे जाने लगे थे. इस छोटी चीज़ के अलावा कोई बड़ा बदलाव आया हो ऐसा नहीं था.

अनन्या के तीन चार शौक़ थे...घूमना, पढ़ना, गप्पें मारना इनमें सबसे जरूरी थे. तरुण और बाकी जो भी उसके हत्थे चढ़ जाता उसके किस्से सुनते चलता. कितनी तो जगहें घूम रखी थीं लड़की ने. एक दिन जाने कैसे बातों बातों में भूतों का किस्सा चल पड़ा...विकास तरुण की खिंचाई कर रहा था कि उसे भूतों से बहुत डर लगता है. कहीं भी अकेले नहीं जाता. अनन्या को रात में अकेले डर कैसे नहीं लगता. उस दिन सबको थोड़ा आश्चर्य हुआ कि अधिकतर अनन्या किसी की खिंचाई करने का कोई मौक़ा नहीं जाने देती थी मगर उस दिन कुछ नहीं बोली. दूसरी बातों की ओर ध्यान भटका दिया सबका.

अब रोज रात को किसी लड़की से बात करोगे तो जाहिर है कि दिन में भी कभी कभार उसका ख्याल आयेगा ही. उसपर अनन्या ऐसी दिलचस्प लड़की थी कि तरुण अक्सर दिन में सोचता रहता कि आज क्या बात करेगा उससे या फिर आज वो कौन सी कहानी सुनाएगी. इसी सिलसिले में एक दिन ऐसे ही गूगल पर अनन्या टाइप कर के खोज रहा था कि फेसबुक या कहीं और वो आती है कि नहीं. अनन्या बहुत ज्यादा कोमन नाम तो था नहीं. तीसरे चौथे पन्ने पर जो तस्वीर अनन्या की थी...टाइम्स ऑफ इण्डिया में खबर रिपोर्टेड थी...रोड एक्सीडेंट केस. क्रिटिकल कंडीशन में अस्पताल लायी गयी लड़की तीन चार घंटों में ही ब्रेन डेड डिक्लेयर कर दी गयी. उसके पर्स में एक ओरगन डोनेशन कार्ड था...अस्पताल ने उसकी आँखें, दिल, लिवर और दोनों गुर्दे ट्रांसप्लांटेशन के लिए ओरगन बैंक भेज दिए थे. घर वालों को इत्तला दी गयी थी. एक बड़ा भाई था उसका, बॉडी पिक करने वही आया था.

तरुण को ऐसा सदमा लगा था कि उसे कुछ देर तो समझ ही नहीं आया कि क्या करे, किससे बात करे जो उसे पागल नहीं समझे. मगर अनन्या सिर्फ उससे तो मिलती नहीं थी...बाकी सारे दोस्तों से भी तो मिली है. गूगल पर उसका पूरा नाम डाल के खोजा...दो साल पुराना उसका ब्लॉग मिला, वहाँ उसकी लिखी अनगिनत कहानियां. कमेंट्स में उसके दोस्तों के बहुत सारे सन्देश. किसी के चले जाने के बाद भी कितना कुछ बाकी रह जाता है इन्टरनेट की इस निर्जीव दुनिया में भी. तरुण सोच रहा था कि अगर वो कमेन्ट करे कि अनन्या से रोज उसकी बात होती है तो कोई उसकी बात पर यकीन करेगा.

एक और समस्या थी...शाम को घर से बाहर कैसे जाये. ये जानने पर भी कि अनन्या को गए दो साल से ऊपर बीत चुके हैं, तरुण को विश्वास ही नहीं हो रहा था. हर डर के बावजूद वो जानता था कि उसे अनन्या से बात करनी ही होगी. आज चारों लड़के ऑफिस से जल्दी घर आ गए थे, पूरी बात जान कर सब एक अजीब से सन्नाटे में डूब गए थे. जाने क्यूँ तरुण को लगता था कि अब अनन्या से कभी मिल नहीं सकेगा. जाने वो आज रात आएगी भी कि नहीं. शाम की घड़ियाँ सिगरेट फूंकते बीतीं.

साढ़े नौ बजते बजते बेचनी हद तक बढ़ गयी थी...कमरे में ताला लगा कर चारों लड़के बाहर सड़क पर आ गए. आधा घंटा जाने किन किन भगवानों को याद करते कटा. अनन्या समय की पक्की थी...ठीक दस बजे सन्न से लहराती हुयी उसकी साइकिल उनके आगे से निकली...पर आज किसी ने कोई कमेन्ट नहीं किया कि मरेगी लड़की या जान प्यारी नहीं है तुझे. मोड़ पर लैम्पपोस्ट चुप खड़ा था.

अनन्या ने सबको इतने गंभीर मूड में देखा तो हौले से तरुण के पास आके पूछा...'कोई मर गया क्या?' तरुण चुप रहा मगर बाकी तीनो एक साथ चीख पड़े 'अनन्या'. तरुण कुछ देर चुप रहा...मगर सवाल बिना पूछे वापस भी तो नहीं जा सकता था.
'तुम मर चुकी हो?'
'हाँ'
एकदम फैक्चुअल जवाब...सीधा, सपाट...कोई मेलोड्रामा नहीं.
'मुझे बताया नहीं'
'दो साल पुरानी खबर थी, क्या बताती.' और वो खिलखिला के हँस पड़ी.
'मुझसे मिलने मत आया करो'

चुप्पी....

बहुत सारी चुप्पी....

'क्यूँ, मैं मर गयी तो मुझसे दोस्ती नहीं कर सकते?'
'नहीं.'
....
.........
'तुम कब तक ऐसे भटकती रहोगी? कोई तो उपाय होगा...तुम्हारा तर्पण नहीं हुआ होगा शायद, कोई अधूरी इच्छा रही होगी...मुझे बताओ'
'मेरा तर्पण हो गया है...बिलकुल सारे रीति रिवाजों के साथ...लेकिन मेरा केस कुछ अलग था इसलिए मुझे स्पेशल परमिशन मिली है'
'किस चीज़ की?'
'ऐसे भटकते हुए रहने की'
'क्या बांधे रखता है तुम्हें अनन्या?'
'जिंदगी...मुझे जिंदगी से प्यार है'
......
.................
'तुम हमेशा ऐसी ही रहोगी?'
'हाँ'
'तुम हमेशा यहीं रहोगी?'
'पता नहीं'

'मैं यहाँ से जाना चाहता हूँ'
'ठीक है'
'और तुम?'
'और मैं क्या?'
'कुछ नहीं'
.......
..............
'सुनो तरुण, आगे से किसी लड़की को ऐसे रात में अकेले देखोगे तो टोकना मत. सारे भूत मेरे तरह अच्छे नहीं होते. किसी और का दिल आ गया तुम पर तो तुम्हें अपने साथ ले जायेगी. तुम्हें जाने देना बहुत मुश्किल है. मरने से भी ज्यादा मुश्किल.'
........
.................
उस दिन के बाद अनन्या वहाँ कभी नहीं दिखी. सालों साल बाद भी कई बार तरुण गाड़ी चला रहा होता है और कोई लड़की साइकिल पर रिव्यू मिरर में दिखती है तो उसे अनन्या याद आ जाती है. अनन्या की कही आखिरी बात...जा रहे हो...कभी भी...मुड़ कर वापस नहीं देखना. वरना मैं कहीं जा नहीं पाउंगी और तुम कभी वापस नहीं आओगे. अनन्या ये नहीं जानती कि कई बार लोग कहीं जाते नहीं. ठहर जाते हैं. उसी मोड़ पर. उसी वक्त में.
......
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उफ़...जिंदगी कितनी लंबी है. तरुण अपने आखिरी दिनों में अपनी पसंद की साइकिल खरीदते हुए सोचता है...जिंदगी के पार...उस मोड़ पर...अनन्या होगी न?

26 September, 2012

अनलहक!

बहुत दूर ऊपर निर्जन हिमालय में एक गुफा है...साल भर बर्फ के ग्लेशियर का पानी पिघल कर बूँद बूँद गिरता  है. नीचे पहुँच कर पानी फिर बर्फ हो जाता है...एक वृत्त पूरा हो जाता है...बर्फ...पानी...बर्फ. मगर इस वृत्त के पूरा होने में कुछ रच जाता है...शिवलिंग...अमरनाथ की गुफा में...हर साल सावन पूर्णिमा को एक दिन के लिए गुफा का दरवाजा खुलता है.
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लिखना...जैसे प्याला रखा हो और शब्द वैसे ही बूँद बूँद गिरते हों...निर्वात से उगते हैं शब्द...कुछ रच जाता है और फिर निर्वात में ही खो जाते हैं शब्द...मैं काफी दिनों से इस प्याले को देख रही हूँ...जाने शब्द आने बंद हो गए हैं कि प्याला टूट गया है. पहर पहर प्याले को देखते गुज़रता है...शब्द की परछाई भी नहीं दिखती...प्याले की तलछट में पिछला बकाया भी कुछ नहीं.

मुझे हमेशा लगता था कि लिखना कभी खुद से नहीं होता है...सब कुछ हमारे इर्द गिर्द ही रहता है...मैं बस माध्यम हूँ जिसके द्वारा कुछ लिखा जाता है. लिखना बहुत हद तक इन्वोलंटरी रहा है हमेशा से मेरे लिए.
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मैं कुछ कुछ सिजोफ्रेनिक भी होती जा रही हूँ...मन के अंदर हमेशा से बहुत सारी स्याही थी...लिखने से थोड़ा अँधेरा कम होता था...आजकल नहीं लिखती हूँ तो वही अँधेरा जैसे कौर बना कर मुझे खा लेना चाहता है...ग्रस लेता है...रात दर रात दर रात. कलमें शिकायत में डूबी हैं...घर में बेजा चीज़ें बढ़ती जा रही हैं. केओस बहुत सारा है. हालत कुछ कुछ वैसी लगती है जैसे शिव का तांडव चल रहा हो और चारों तरफ सिर्फ विनाश...सारी चीज़ें अपनी जगह से अलग-विलग. शब्द अजनबी...कोई तारतम्य नहीं. जैसे इस क्षण कोई शिव के पैरों पर गिर कर कहे...कि बस. अब बस.

मुझे नहीं मालूम ये कौन से लोग हैं जो मुझे दिखते हैं...और क्यूँ दिखते हैं...ये मेरे पीछे पीछे चलते हैं. साइकिल चलाती हूँ, हवा तेज़ी से गुज़रती है...और लगता है कि मोड़ पर कोई था...उसका होना इतना सच है कि मुझे कपड़ों के रंग दिखते हैं...मैं साइकिल वापस मोड़ती हूँ मन में मनाते हुए कि कोई हो वहाँ पर...न कुछ सही कोई जानवर ही...कुत्ता, बिल्ली...कोई जीवित चीज़ कि मुझे लगे कि मुझे धोखा हो गया था. पर वहाँ कोई भी नहीं होता. आगे पीछे दायें बाएं...सब ओर लोगों की परछाइयाँ...मैं जितना ही खुद को कमरे में बंद करना चाहती हूँ उतना ही परछाइयाँ नज़र आती हैं...इकलौता उपाय है लाईट बुझा कर अँधेरा कर देना...अँधेरे में परछाइयाँ नहीं दिखतीं...मगर अँधेरे के अपने डर हैं.

अँधेरा जब तक कलम में बंद है उससे दिन के आसमान पर लिखा जा सकता है...पर जब अँधेरा चारों ओर फ़ैल जाए तो उसपर रौशनी से नहीं लिख सकती मैं. मेरा कुछ तोड़ने का मन भी नहीं करता...कुछ जलाने का...कुछ फ़ेंक देने का...कुछ नहीं.

अँधेरा एक ब्लैक होल है...धीरे धीरे मेरी ओर बढ़ता है...मैं चुप होती जाती हूँ...मैं कुछ नहीं सुनती...कुछ नहीं कहती...सारे लोग किसी दुनिया में थे ही नहीं...डॉक्टर डायग्नोज करता है...और बताता है कि कोई नहीं है...मैं डॉक्टर को देखती हूँ...जानती हूँ...वो भी एक्जिस्ट नहीं करता है.

ये सब मेरी कल्पना है...मेरी रची दुनिया...कहीं कुछ सच नहीं...तो फिर मैं कौन...खुदा?

14 September, 2012

क्राकोव डायरीज-७-ये खिड़की जिस आसमान में खुलती है, वहाँ कोई खुदा रहता है?

'I see dead people.'
-from the film-Sixth Sense
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आज ऑफिस से घर लौटते हुए एक मोड़ पर ऐसा लगा कि कोई बुढ़िया है, कमर तक झुकी हुयी. मैंने रिव्यू मिरर में देखा...वहाँ कोई नहीं था. मैं उस बारे में सोचना नहीं चाहती. जो वाक्य दिमाग में अटक गया वो सिक्स्थ सेन्स फिल्म का था...मुझे कोई अंदाजा नहीं कि क्यूँ. आज रात बैंगलोर में अचानक बारिश शुरू हो गयी. मुझे मालूम नहीं क्यूँ. जिंदगी में जब 'मालूम नहीं क्यूँ' की संख्या ज्यादा हो जाती है तो मैं चुप हो जाती हूँ और जवाब तलाशने लगती हूँ. 
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औस्वित्ज़-बिर्केनाऊ की आखिरी कड़ी लिखने बैठी हूँ...दिल की धड़कनें बेहद तेज रफ्तार हैं...जैसे मृत्यु के पहले के आखिरी क्षण से खींच कर लाया गया है मुझे. 
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बिर्केनाऊ एक श्रम शिविर था...इन शिविरों को यातना शिविर या मृत्यु शिविर कहने से शायद लोगों में शक पैदा हो जाता कि इन शिविरों का मूल उद्देश्य क्या है. होलोकास्ट इतने योजनाबद्ध तरीके से कार्यान्वित किया गया था कि सबसे नयी तकनीक...पंचिंग कार्ड का इस्तेमाल करके हर शिविर में आने, रहने और मरने वाले लोगों का पूरा बहीखाता तैयार किया गया था. उन्नत तकनीक के कारण हिटलर की फ़ौज के लिए ज्यु आबादी को ढूँढना भी आसान हुआ था. 

बिर्केनाऊ में काम करने के लिए आये कैदियों को पहले शावर कमरे में भेजा जाता था. उनके बाल उतारे जाते थे और उन्हें पहनने को कपड़े और जूते दिए जाते थे. बिना ऊनी मोजों के लकड़ी के जूते जो अक्सर सही फिटिंग के भी नहीं होते थे और उनमें चलना बेहद तकलीफदेह होता था. बिर्केनाऊ में हर कदम इतना सोचा समझा था कि व्यक्ति जल्द से जल्द मर जाए. 

तीन लेवल के बंक बैरक
बिर्केनाऊ में औरतों के बैरक अभी तक सही सलामत हैं क्यूंकि ये ईंटों के बने हैं. बैरक में लोगों के सोने की जगह होती थी. ईंटों और लकड़ियों से बाड़ जैसे बंक बेड्स बनाये गए थे. लगभग छः फीट बाय चार फीट का एक सेक्शन होता था. एक सेक्शन में पाँच से सात औरतों को सोना पड़ता था. बैरक में तीन लेवेल्स होते थे...और उनपर पुआल बिछी रहती थी. बेहद ठंढी जगह होने के बावजूद ईमारत को गर्म रखने का कोई इंतज़ाम नहीं था. अक्सर बारिशें होती रहती थीं और छत टपकती रहती थी. चूँकि फर्श भी कच्चा होता था इसलिए कीचड़ बन जाता था. निचले तले पर सोने वाली औरतों को चूहों का खौफ रहता था. बिर्केनाऊ के चूहे बेहद बड़े और माँसाहारी थे. वे सोती हुयी औरतों को कुतर खाते थे...कभी हाथ का मांस नुचा होता था कभी पैर का...कभी चेहरे का.

इन बैरकों के साथ कोई छेड़खानी नहीं की गयी है. वे अभी भी वैसे के वैसे हैं. ऊपर वाले लेवल पर एक खिड़की होती थी. मैं वहाँ खड़ी सोच रही थी...कि यहाँ जो औरतें सोती हैं वो रात को खिड़की से ऊपर देख कर क्या सोचती होंगी...क्या उनके मन में भगवान या किसी ऐसी शक्ति का ख्याल आता होगा. अपने बच्चों को कौन सी कहानियां सुनाती होंगी...क्या बच्चे परियों पर यकीन करते होंगे? क्या कोई माँ अपने बच्चे को झूठे ख्वाब दिखाती होगी कि ये सब कुछ दिनों की बात है फिर सब कुछ नोर्मल हो जाएगा. नोर्मल क्या होता है? बिर्क्नाऊ में पैदा हुए बच्चे और अन्य छोटे बच्चे जो इन कैम्पस में रहते थे उन्हें मालूम ही नहीं था कि लोगों का 'नाम' भी होता है. जन्म के समय से दागे गए ये बच्चे सिर्फ संख्या को पहचानते थे. 

बिर्केनाऊ के निर्माण के एक साल तक वहाँ किसी तरह के शौचालय या नहाने की व्यवस्था नहीं थी. बारिश होती थी तो लोग नहा लेते थे. एक आम दिन ३ बजे शुरू होता था. ठीक समय के बारे में लोग एकमत नहीं हैं. तीन बजे लोग उठते थे और नित्य कर्म निपटाते थे. हर कैदी को आधा घंटा निर्धारित किया गया था. इससे ज्यादा समय लगने पर वे सजा के हक़दार होते थे. तीन बजे से सात बजे तक रोल कॉल चलती थी. ये सबसे अमानवीय अत्याचारों का वक्त होता था. एसएस गार्ड्स कैदियों को अक्सर घंटों खड़े रहने बोल देते थे...तो कभी उकडूं बैठ कर दोनों हाथ ऊपर उठाये रखने का निर्देश जारी कर दिया जाता था. अगर किसी कैदी की मृत्यु हो गयी है तो भी उसे रोल कॉल में माजूद होना होता था. मृत कैदी बिना कपड़ों के होता था और उसे दो कैदी कन्धों पर उठाये रखते थे. अगर रोल कॉल में कोई एक कैदी भी नहीं मिल रहा होता था तो बाकी सारे कैदी तब तक खड़े रहते थे जब तक खोया हुआ कैदी मिल नहीं जाता. 

रोल कॉल के बाद खाना मिलता था और लोग काम पर लग जाते थे. खेतों में दिन भर काम किया करते थे. हर कैदी का अपना काम का कोटा होता था. शाम को सजाएं दी जाती थीं. अगर किसी ने अपने कोटे से कम काम किया है...या साथी कैदी की मदद करने की कोशिश की है...या दिन में एक बार और बाथरूम गया है तो कैदियों को सजा मिलती थी. सजा अक्सर मृत्युदंड ही होती थी. इसके अलावा कैदियों को भूखे मारना जैसी भी सजाएं थीं. लोगों को दिन में ७०० कैलोरी से अधिक का खाना  नहीं मिलता था. एक आम इंसान की खाने की कम से कम १००० कैलोरी की जरूरत होती है. जर्मन ज्यु आबादी को बिना ढंग का खाना दिए और दिन भर काम करवा कर थकान और भूख से मारना चाहते थे और उसमें वे बेहद सफल हुए थे. श्रम शिविर में आने के तीन से चार महीनों के अंदर लोग मर जाते थे. 

बहुत लोग आत्महत्या करने की कोशिश में बाड़ पर खुद को फ़ेंक देना चाहते थे पर अक्सर गार्ड अपने वाच टावर से पहले ही उन्हें गोली मार दिया करते थे. बिर्नेकाऊ के इन्सिनेरेटर में जब लोगों को जलाने की जगह नहीं बचती थी तो लोगों को खुले में जलाया जाता था. कैदियों और आसपास के कई गाँव वाले दुर्गन्ध से जान जाते थे कि इन शिविरों में क्या चल रहा है मगर किसी के पास कोई उपाय नहीं था. जब कुछ कैदियों ने बाहरी दुनिया को बताने की कोशिश की कि बिर्केनाऊ जैसे कैम्पस में हज़ारों की संख्या में यहूदियों की हत्या हो रही है तो बाहरी दुनिया ने इसे अतिशयोक्ति कह कर नकार दिया. 

बिर्केनाऊ और लगभग चालीस अन्य छोटे कैम्पस का उद्देश्य था कि कैदी वाकई जानवरों जैसे हो जाएँ, हर इंसानियत से परे. बिर्केनाऊ में जिन्दा रहने के सबसे बेसिक इंस्टिंक्ट्स की जरूरत थी. सर्वाइवल ऑफ द फिटेस्ट. इन शिविरों में रहने वाले लोगों में किसी तरह की मानवीय भावना नहीं बचती थी. कुछ दिन बाद वे किसी भी तरह जिन्दा रहना चाहते थे...अपने साथी का सामान झपट लेना, लोगों का खाना छीन कर खा लेना, किसी की मदद नहीं करना. छः महीने तक जिन्दा रहते कैदियों में बेहद हताशा और फिर उदासीनता भर जाती थी. उनकी आँखों में जिंदगी की कोई चमक नहीं रहती थी. 

जब सोवियत सैनिकों ने बिर्केनाऊ में प्रवेश किया तो उन्हें लगा कि वे कैदियों को आजाद कर रहे हैं तो कैदी खुश होंगे...मगर वहाँ रहने वाले लोग किसी भी भावना को महसूस करने लायक बचे ही नहीं थे. उनमें कोई उम्मीद नहीं थी...न जीने का कोई उद्देश्य था. वे पूरी तरह हारे हुए लोग थे. 

बिर्केनाऊ कैम्प से छुड़ाए गए अधिकतर लोग कुछ महीनों के अंदर मर गए थे. मगर जो बाकी बचे सिर्फ और सिर्फ अपनी जिजीविषा के कारण. साहस...उम्मीद के खिलाफ जा कर भी जीने का साहस... जीवन की अदम्य लालसा...ये एक बीज की तरह होती है...शायद आत्मा के अंश में गुंथी हुयी...कि सब हार जाने के बाद भी खुद को जोड़ लेती है. अंग्रेजी में एक बड़ा खूबसूरत फ्रेज है...The indomitable human spirit.

शिविर के बैरक्स में घूमते हुए हालात वैसे ही थे जैसे उन दिनों रहे होंगे जब यहाँ अनगिन कैदी काम करते होंगे...आसमान काले बादलों से पूरा घिर गया था...दिन में अँधेरा था और उदासी थी. हम अपनी गाइड के पीछे चुप चाप चल रहे थे. बहुत तेज बारिशों के कारण अधिकतर लोग भीग गए थे...भीगने की शिकायत बेहद तुच्छ  लग रही थी...किसी ने एक शब्द भी नहीं कहा. जिस रास्ते हम अंदर गए थे...उसी रास्ते वापस आ रहे थे. वो एक लंबा रास्ता था जिसके आखिरी छोर पर मृत्यु द्वार था...डेथ गेट. आखिरी कहानियां कुछ उन लोगों की थी जिन्होंने इतने मुश्किल हालातों में अपना आत्म-सम्मान और इंसानियत नहीं खोयी...अपने छोटे छोटे तरीकों से लोगों ने मौत और बदतर जीने के हालातों में भी दुनिया को औस्वित्ज़ के बारे में बताने की कवायद जारी रखी. 

हम जब बिर्केनाऊ के दरवाजे से बाहर आ रहे थे तो बादल छंट गए थे और धूप निकल आई थी. जैसे वाकई सब कुछ अतीत था और पीछे छूट गया था. मुझे इतिहास कभी पसंद नहीं रहा...मुझे समझ ही नहीं आता था कि जो बीत गया उसमें लोगों को इतना इंटरेस्ट क्यूँ रहता है. अब मैं समझती हूँ कि इतिहास को पढ़ना इसलिए जरूरी है कि हम उन गलियों से सबक ले सकें और उसे दोहराने से बच सकें. 

मैं नहीं जानती कि वो लोग कैसे थे...हाँ उनका दर्द जरूर समझ आता था...और सिर्फ समझ नहीं आता...घुल आता है जिंदगी में. औस्वित्ज़ जाना मेरे लिए जिंदगी को बदल देने वाला अनुभव है. कुछ चीज़ें उपरी सतह पर नज़र आ रही हैं...कुछ बवंडर लहरों के नीचे कहीं फॉल्ट लाइन्स में उठ रहे हैं. मुझे लगता था कि मनुष्य की डिफाइनिंग क्वालिटी होती है उसकी प्यार करने की क्षमता मगर मैंने जितना कुछ नया देखा उससे ये सीखा कि प्यार से भी ऊपर और सबसे जरूरी भाव है 'करुणा'. आज के दौर में बेहद नज़र अंदाज़ कर देने वाला भाव है...लेकिन Kindness is the most important of all human values. 
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शब्द कभी पूरे नहीं पड़ते...भाषा का दोष है या भाव का...या शायद कोई भाषा बनी ही नहीं है जिसमें बयान किया जा सके...इसलिए...चुप. चुप. चुप. इस जगह की हवा में. मिट्टी में. पानी में. रूहें हैं. दर्द है. पोलैंड कहता है...यहाँ आओ...इतने कम लोग कैसे उठाएंगे दुःख का इतना बोझ. हम सब थोड़ा थोड़ा दर्द समेट लाते हैं उस मिट्टी से...फिर टुकड़ा टुकड़ा बांटते हैं उसे. दर्द की फितरत है. बांटने से घटता है.




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मैंने औस्वित्ज़-बिर्केनाऊ में ज्यादा तसवीरें नहीं खींची...ये एक आधे मिनट का विडीयो है...बिर्केनाऊ का विस्तार देखने के लिए.  
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