10 March, 2014

फिल्म के बाद की डायरी

दिल की सुनें तो दिल बहुत कुछ चाहता है। कभी बेसिरपैर का भी, कभी समझदार सा।
इत्तिफाक है कि हाल की देखी हुयी दो फिल्मों में सफर एक बहुत महत्वपूर्ण किरदार रहा है...किरदार क्युंकि सफर बहुत तरह के होते हैं, खुद को खो देने वाले और खुद को तलाश लेने वाले। हाईवे और क्वीन, दोनों फिल्में सफर के बारे में हैं। अपनी जड़ों से इतर कहीं भटकना एक अलग तरह की बेफिक्री देता है, बिल्कुल अलग आजादी...सिर्फ ये बात कि यहाँ मेरे हर चीज को जज करने वाला कोई नहीं है, हम अपनी मर्जी का कुछ भी कर सकते हैं...और ठीक यही चीज हमें सबसे बेहतर डिफाइन करती है, जब हम अपनी मर्जी का कुछ भी कर सकते हैं तो हम क्या करते है। बहुत समय ऐसा होता है कि हमसे हमारी मर्जी ही नहीं पूछी जाती, बाकी लोगों को बेहतर पता होता है कि हमारे लिये सही क्या है...ये लोग कभी पेरेंट्स होते हैं, कभी टीचर तो कभी भाई या कई बार बौयफ्रेंड या पति। कुछ कारणों से ये तय हो गया है कि बाकी लोग बेहतर जानते है और हमारे जीवन के निर्णय वही लेंगे। कई बार हम इस बात पर सवाल तक नहीं उठाते। इन्हीं सवालों का धीरे धीरे खुलता जवाब है क्वीन, और इसी भटकन को जस का जस दिखा दिया है हाईवे में, बिना किसी जवाब के। मैं रिव्यू नहीं लिख रही यहां, बस वो लिख रही हूं जो फिल्म देखते हुये मन में उगता है। क्वीन बहुत अच्छी लगी मुझे...ऐसी कहानी जिसकी हीरो एक लड़की है, उसका सफर है।

कई सारे लोग जमीनी होते हैं, मिट्टी से जुड़े हुये...उनके ख्वाब, उनकी कल्पनाएं, सब एक घर और उसकी बेहतरी से जुड़ी हुयी होती हैं...लेकिन ऐसे लोग होते हैं जो हमेशा कहीं भाग जाना चाहते हैं, उनका बस चले तो कभी घर ना बसाएं...बंजारामिजाजी कभी विरासत में मिलती है तो कभी रूह में...ऐसे लोग सफर में खुद को पाते हैं। कल फिल्म देखते हुये देर तक सोचती रही कि मैं क्या करना चाहती हूं...जैसा कि हमेशा होता है, मुझे मेरी मंजिल तो दिखती है पर रास्ते पर चलने का हौसला नहीं दिखता। मगर फिर भी, कभी कभी अपनी लिखने से चीजें ज्यादा सच लगने लगती हैं...हमारे यहां कहावत है कि चौबीस घंटे में एक बार सरस्वती जीभ पर बैठती हैं, तो हमेशा अच्छा कहा करो।

मुझे लोगों का सियाह पक्ष बहुत अट्रैक्ट करता है। लिखने में, फिल्मों में...हमेशा एक अल्टरनेट कहानी चलती रहती है...जैसे हाइवे और क्वीन, दोनों फिल्मों में इन्हें सिर्फ अच्छे लोग मिले हैं, चाहे वो अजनबी लड़की या फिर किडनैपर...मैं सोच रही थी कि क्या ही होता ऐसे किसी सफर में सिर्फ बुरे लोग मिलते...जिसने कभी किसी तरह की परेशानियां नहीं देखी हैं, वो किस तरह से मुश्किलों से लड़ती फिर...ये शायद उनके स्ट्रौंग होने का बेहतर रास्ता होता। मेरा क्या मन करता है कि एक ऐसी फिल्म बनाऊं जिसमें चुन चुन के खराब लोग मिलें...सिर्फ धमकी देने वाले नहीं सच में कुछ बुरा कर देने वाले लोग...सफर का इतना रूमानी चित्रण पच नहीं रहा। फिर लड़की डेंटी डार्लिंग नहीं मेरे जैसी कोई हो...मुसीबतों में स्थिर दिमाग रखने वाली...जिसे डर ना लगता हो। अजब अजब कीड़े कुलबुला रहे हैं...ये लिखना, वो लिखना टाईप...ब्रोमांस पर फिल्में बनती हैं तो बहनापे पर क्युं नहीं? कोई दो लड़कियाँ हों, जिन्हें ना शेडी होटल्स से डर लगता है ना पुलिस स्टेशन से...देश में घूमने निकलें...कहानी में थोड़ा और ट्विस्ट डालते हैं कि बाईक से घूमने निकली हैं कि देश आखिर कितना बुरा है...हमेशा कहा जाता है, खुद का अनुभव भी है कि सेफ नहीं है लड़कियों का अकेले सफर करना...फिर...सबसे बुरा क्या हो सकता है? रेप ऐंड मर्डर? और सबसे अच्छा क्या हो सकता है? इन दोनों के बीच का संतुलन कहां है?

So, when you come back, you may have a broken body...but a totally...absolutely...invincible soul...now if that is not worth the journey, I don't know what is!

मुझे हमेशा लगता था मुझसे फुल टाईम औफिस नहीं होगा...हर औफिस में कुछ ना कुछ होता ही है जो स्पिल कर जाता है अगले दिन में...ऐसे में खुद के लिये वक्त कहां निकालें! लिखने का पढ़ने का...फिर भी कुछ ना कुछ पढ़ना हो रहा है...आखिरी इत्मीनान से किताब पढ़ी थी IQ84, फिर मुराकामी का ही पढ़ रही हूं...किताबें पढ़ना भाग जाने जैसा लगता है, जैसे कुछ करना है, वो न करके भाग रही हूं...परसों बहुत दिन बाद दोस्त से मिली...श्रीविद्या...एक बच्चे को संभालने, ओडिसी और कुचीपुड़ी के रिहर्सल के दौरान कितना कुछ मैनेज कर लेती है...उसके चेहरे पर कमाल का ग्लो दिखता है...अपनी पसंद का जरा सा भी कुछ मिल जाता है तो दुनिया जीने लायक लगती है...दो तरह की औरतें होती हैं, एक जिनके लिये उनके होने का मकसद एक अच्छा परिवार है बसाना और बच्चे बड़ा करना है...जो कि बहुत जरूरी है...मगर हमारे जैसे कुछ लोग होते हैं, जिन्हें इन सब के साथ ही कुछ और भी चाहिये होता है जहां हम खुद को संजो सकें...मेरे लिये लिखना है, उसके लिये डांस...इसके लिये कुर्बानियां देते हुये हम जार जार रोते हैं मगर जी भी नहीं सकते अगर इतना जरा सा कुछ ना मिल सके।

हम डिनर पर गये थे, फिर बहुत देर बातें भी कीं...थ्री कोर्स डिनर के बाद भी बातें बाकी थीं तो ड्राईव पर निकल गये...पहले कोरमंगला तक फिर दूर माराथल्ली ब्रिज से भी बहुत दूर आगे। कल से सोच रही हूं, लड़कियों के साथ का टूर होता तो कितना अच्छा होता...मेरी बकेट लिस्ट में हमेशा से है...अनु दी, नेहा, अंशु, शिंजिनी...ये कुछ वैसे लोग हैं जिनके साथ कोई वक्त बुरा नहीं हो सकता। कोई हम्पी जैसी जगह हो...देखने को बहुत से पुराने खंडहर...नदी किनारे टेंट। बहुत से किस्से...बहुत सी तस्वीरें। जाने क्या क्या।

बहरहाल, सुबह हुयी है और हम अपने सपने से बाहर ही नहीं आये हैं...चाह कितना सारा कुछ...फिल्में, किताबें...घूमना...सब होगा, धीरे धीरे...फिलहाल कहानियों को ठोकना पीटना जारी है। फिल्म भी आयेगी कभी। औफिस में आजकल सब अच्छा चल रहा है, इसलिये लगता है कि जाने का सबसे सही वक्त आ गया है। यहां डेढ़ साल से उपर हुये, इतना देर मैं आज तक कहीं नहीं टिकी, अब बढ़ना जरूरी है वरना जड़ें उगने लगेंगी। फ्रेंच क्लासेस शुरू हैं, अगले महीने...सारे प्लान्स हैं...वन ऐट अ टाईम। 

5 comments:

  1. सुन्दर प्रस्तुति

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  2. Good read.You are always very good with words.

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  3. एक आवारा सबके मन में होता है, बन्धन में छटपटाहट सबको होती है, सबने मिलकर ही चाहा था सहजीवन का तन्त्र।

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  4. For me reading your blog is like talking to myself. Thanx!

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  5. चकाचक.देखेंगे आज क्वीन.

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