02 September, 2014

चेन्नई डायरीज: पन्नों में घुलता सीला सीला शहर

वो शहर से ऐसे गुजरती जैसे उसे मालूम हो कि उसकी आँखों से शहर को और कोई नहीं देख सकता. रातें, कितनी अलग होती हैं दिनों से...जैसे रातरानी की गंध बिखेरतीं...सम्मोहक रातें...पीले लैम्पोस्ट्स में घुलते शहर को चुप देखतीं...गज़ब घुन्नी होती हैं रातें.

अजीब शहरों से प्यार हुआ करता लड़की को. देर रात बस के सफ़र के बाद किसी ऑटो में बैठ कर अपने फाइव स्टार होटल जाते हुए लड़की बाहर देखती रहती थी जब सीला सीला शाहर उसके अन्दर बहने लगता था. वो सोचती, चेन्नई में ह्यूमिडिटी बहुत है. सुनसान पड़ी छोटी गलियों के शॉर्टकट से ले जाता था ऑटो. लड़की महसूसती, इस शहर से प्यार किया जा सकता है. शहर न जाने कैसे तो उसे अपने काँधे पर सर टिका कर ऊंघने देता. वहां के पुलिसवाले, ऑटोवाले, बिना हेलमेट के बाइक चलने वाले छोकरे...सब उसे अपनी ओर खींचते. लड़की अपने अन्दर जरा जरा सी जगह खाली करती और चेन्नई वहां आराम से पसरने लगता.

दिन की धूप में सड़क पर निकल पड़ती...बैंगलोर के ठंढे मौसम के बाद उसे किसी शहर की गर्मी बहुत राहत देती. किसी पुराने पुल के साइड साइड चलती, एग्मोर नाम के किसी मोहल्ले में. हवा में समंदर की आस बुलाती. आँखों से करती बातें. वो क्या तलाशने निकलती और क्या क्या खरीद कर जेबों में भरती रहती. व्रैप अराउंड स्कर्ट, पर्पल कलर की कंघी...डबल चोकलेट आइसक्रीम. जाने क्या क्या. नैशनल म्यूजियम जैसी किसी इमारत के सामने खड़ी होकर गिनती फ्लाइट छूटने के वक़्त को. वक्त हमेशा कम पड़ जाता. लौटते हुए जरा जरा उम्मीदों में इकठ्ठा करती कुछ गलियों में रहती दुकानों को...एक एम्बेसेडर के खाली हुए फ्रेम को, बिना पहिये, बिना सीट...एक पुराने से घर के आगे क्यूँ रखा था फ्रेम? वो क्या स्लो मोशन में चलती थी? फिर क्यूँ सारी चीज़ें दिखती थीं उसे जो इस शहर में गुमनाम घूंघट ओढ़े रहती थीं, जैसे कि उनका होना सिर्फ इसलिए है कि चेन्नई की यादों के ये पिन ऐसे ही याद आयें उसे. एक घर के सामने से गुज़रते हुए वहां के दरबान की जरा सी मुस्कराहट...वो वापस जा के पूछना चाहती थी कि आपकी इतनी मीठी मुस्कराहट के पीछे कौन सी ख़ुशी है. एक अनजान लड़की की यादों के एल्बम में ऐसे चमकीली चीज़ का तोहफा क्यूँ? आप किसी और जन्म से जानते हैं क्या उसको?

सड़क पर सफ़ेद वेश्ती पहने लोग दिखते...एक तरह की धोती...उसे याद आते गाँव में बाबा...उनकी याद आये कितने दिन हो गए. सड़क पर गुजरती औरत के बालों में लगे बेली के फूलों की महक, बगल के रेस्टोरेंट से उठती डोसा की महक...क्या क्या घुलता जाता...सुबह लम्बी कतार में लगे हुए किसी अजनबी से कोई घंटा भर बतियाना और आखिर में पूछना उसका नाम...चंद्रा...उसके कानों के पास के बाल जरा जरा सफ़ेद हो गए थे...बहुत रूड होता न पूछना कि आपकी उम्र क्या है? कितना सॉफ्ट स्पोकन होता है कोई. उससे मिल कर किसी और की बेहद याद आना. उसका कहना कि तुम्हें बे एरिया अच्छा लगेगा. विदेश. योरोप जैसा बिलकुल नहीं. मगर लड़की को शहर लोगों की तरह लगते हैं, हर एक की अपनी अदा होती है. वो सोचती उन सारे लोगों के बारे में जो अपना अपना टिकट लिए किसी दूर देश जाना चाहते हैं. मैं नहीं जाना चाहती...मुझे घबराहट होती है. मैं अपने देश में ही ठीक हूँ. वहां मेरी किताब कौन पढ़ेगा. एक तो ऐसे ही बैंगलोर में मुझे हिंदी बोलने वाले लोग मिलते नहीं. खुद में बातें करती.

लौट आती होटल के कमरे में. स्विमिंग पूल में करती फ्लोट करने की कोशिश. पहली बार ताज़े पानी में तैर लेती. आँख भींचे रहती पहले, जरा जरा पैर मारती. स्विमिंग पूल में अकेली लड़की. साढ़े चार फीट पानी डूबने के लिए बहुत होता है. वो लेकिन सीख लेती घबराहट से ऊपर उठना. क्लोरिन चुभता आँखों को. जैसे याद की टीस कोई. वो लेती गहरी सांस...और तैर कर जाती स्विमिंग पूल के एक छोर से दूसरे छोर तक. फ्लोट करते हुए चेहरे पर पड़ती धूप. बंद हो जाता सारा का सारा शोर. दिल की धड़कनों में चुप इको होता...इश्शश्श्श...क...

2 comments:

  1. एक भ्रमण का गहरा स्‍पर्श, सुन्‍दर चित्रण।

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  2. सच शहर किसी मायावी जगह से काम नहीं लगते उनसे दूर कितना सुकून मिलता है यह बाहर जाकर पता चलता है
    बहुत बढ़िया

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